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________________ तुषचणतिलतण्डुलजलमुष्णजलं च स्ववर्णगन्धरसैः । अरहितमपरमपीदृशमपरिणतं तन्न मुनिभिरुपयोज्यम् ॥ ३२ ॥ अनगार ५४४ भूपी चना तिल अथवा चावलके धोवनका जल यद्वा ऐसा जल जो कि गरम होकरके पुनः ठंडा होगया हो जिसके कि वर्ण गन्ध और रसका परिवर्तन नहीं हुआ है एवं और भी जो इसी तरहका जल हो जो कि हरीतकी चूर्णादिके द्वारा अच्छी तरह विध्वस्त नहीं हुआ हो-अपने वर्णादिको छोडकर वर्णान्तरको प्राप्त न हुआ हो उसको अपरिणत कहते हैं। अत एव संयमियोंको उसका ग्रहण न करना चाहिये । ग्रहण कर नेपर अपरिणत नामका दोष लगता है । यथाः---- तिलादिजलमुष्णं च तोयमन्यच्च तादृशम् । कराद्यऽताडित नैव ग्रहीतव्यं मुमुक्षुमिः॥ साधारण दोषका स्वरूप बताते है: यद्दातुं संभ्रमाद्वस्त्राधाकृष्यान्नादि दीयते । असमीक्ष्य तदादानं दोषः साधारणोऽशने ॥ ३३ ॥ . आकुलता भय अथवा आदरसे वस्त्रादिकोंका आकर्षण करके अच्छी तरह पर्यालोचन किये विना ही दाताके द्वारा दीगई आहार औषधादिक वस्तुके ग्रहण करने में साधारण दोष माना है । यथाः संभ्रमाहरणं कृत्त्वाऽऽदातुं पात्रादिवस्तुनः । असमीक्ष्यव यद्देयं दोषः साधारणः स तु ।। दायक दोषका स्वरूप बताते हैं: ५४४ अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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