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________________ अनगार ३७२ भावार्थ-जो पुरुष स्त्रियोंके द्वारा पुनः पुनः प्रतारित होजाता है वह अपनेको चाहे विदग्ध भले ही समझे किंतु उसको विदग्ध नहीं, मुग्ध ही समझना चाहिये । और कहना चाहिये दुष्कर्मने उसकी बुद्धिको भ्रष्ट कर. || दिया है। तभी तो अपने अहितकरको भी हितकर और सुखका साधन समझकर पुनः पुनः उसमें राग करने लगता है। स्त्रियोंका चरित्र इतना दुर्गम और दुरूह है कि सहसा योगियोंके भी लक्ष्यमें वह नहीं आसकता, इसी बातपर लक्ष्य दिलाते हैं: परं सूक्ष्ममपि ब्रह्म परं पश्यन्ति योगिनः । . न तु स्त्रीचरितं विश्वमतद्विद्य कुतोन्यथा ॥ ७४॥ योगिजन-अष्टांग योगके विषयमें निष्णात मुमुक्षु जन जा मनका भी विषय नहीं हो सकता ऐसे अत्यन्त सूक्ष्म और परमात्मस्वरूप ब्रह्मको खसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा भले प्रकार देख सकते और उसका अनुभव भी कर सकते हैं। किंतु स्त्रीचरित्रको वे भी नहीं देख सकते । क्योंक यदि देख सकते होते तो यह विश्व-समस्त संसार इस विषयकी विद्यासे शून्य किस तरह रह सकता था। भावार्थ-संसारमें जितनी भी विद्याएं हैं वे सब महर्षियोंके ज्ञानपूर्वक ही प्रवृत्त हुई हैं। यदि उनको स्त्रीचरित्रका भी ज्ञान होता तो उनके उपदेशके अनुसार इस विषयकी भी कोई विद्या अवश्य प्रवृत्त होती । किं तु ऐसी कोई भी विद्या संसारमें प्रवृत्त नहीं है । इससे मालूम पडता है कि उन योगियोंके भी लक्ष्यमें स्त्री चरित्र आया नहीं था । अत एव वह अत्यंत दुर्लक्ष्य है यह बात स्पष्ट है। जैसा कि कहा भी है किः - अध्याय ३७२ मायागेहं ससंदेहं नृशंसं बहुसाहसम् । कामान्धैः स्त्रीमनो लक्ष्यमलक्ष्यं योगिनामपि ॥
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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