SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ UIDASHARE बनगार धर्म ३७१ प्राणोंका भी अपहरण कर डालती है। और यदि वह बोष संतोष करने लगे-प्रसन्न होजाय तो उस मनुष्यसे इस लोक और परलोक-दोनो ही जगहपर अपनी इच्छानुसार चेष्टाएं कराकर उसको पीस डालती है । उसके समस्त पुरुषार्थीका उपमर्दन कर चूर्ण कर देती है-उसको बिलकुल भ्रष्ट कर देती है। इस तरहकी इस सीप र्यायके विषयमें हे मित्र ! यदि तू दोषज्ञ है-जिनका कि पहले उल्लेख किया जा चुका है उनको तथा और भी स्त्रीदोषोंको यदि तू जानता है तब तो सचमुचमें ही तू दोषद-पण्डित है। . भावार्थ:--जो वस्तुओंके यथावस्थित दोषोंको जानता है उसको दोषज्ञ कहते हैं । अत एव दोषज्ञ नाम पण्डितका है। और इसी सामान्य अर्थकी अपेक्षासे कोषादिकमें भी पण्डितके पर्यायवाचक शब्दोंके साथ दोपत्र शब्दका भी पाठ किया है । यथा “ विद्वान् विपश्चिद् दोषज्ञः" । किंतु ग्रंथकार कहते हैं कि मैं वस्तुतः दोषज्ञपण्डित उसको समझता हूं जो कि स्त्रियोंके दोषोंको जानता है। दूसरे दोषोंको वह जाने या न जाने, यदि खा. दोषोंको जानता है तो वह जरूर पण्डित है। और यदि दूसरे पदार्थों के दोषोंको जानते हुए भी स्त्रीदोषोंको नहीं जानता तो वह वस्तुतः दोषज्ञ--- पण्डित नहीं है । अतएव मुमुक्षु विद्वानोंको सबसे पहले सीदोषोंके जाननेका प्रयत्न करना चाहिये । इसके विना उनके स्त्रीवैराग्यकी सिद्धि ब्रह्मचर्यकी वृद्धि नहीं हो सकती! स्त्रियां खभावसे ही चंचला-प्रतारणा करनेवाली है और इसी लिये वे एक दुःखको ही कारण हैं। इस वाको दिखाते हुए भी प्रकट करते हैं कि फिर भी लोक उनपर निरन्तर मुग्ध ही होते हैं: लोकः किं नु विदग्धः किं विधिदग्धः स्त्रियं सुखाङ्गेषु । यद्धरि रेखयति, मुहुर्विश्रम्भं कृन्ततीमाप निकृत्या ॥७३ ॥ बहा मालूम नहीं ये संसारी प्राणी विदग्ध-व्यवहारकुशल पुरुष हैं अथवा विधिदग्ध हैं. पूर्वसंचित दुष्कर्मने इतनी बुद्धि भ्रह करदी है ? क्योंकि ये लोग सुखके कारणोंकी गणना करते समय सबसे पहले उस खोकी गणना किया करते हैं जो कि बचना प्रतारणाके द्वारा वारवार विश्वासका घात किया करती है। अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy