SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ SKRI लनमार तर अधिकाधिक रूपमें उसमें उपयुक्त होते जानेको उसकी सिद्धि कहते हैं। इन चारो आराधनाओंके धारण करनेवालेको देव कहते हैं । यथा:-- मान्य ज्ञानं तपोहीनं ज्ञानहीनं तपोर्हितम् । द्वयं यस्य स देवः स्याद् द्विहीनो गणपूरणः ॥ तपरहित ज्ञान मान्य होता है. और ज्ञानरहित तप भी पूज्य माना गया है । अत एव जिसमें ये दोनों ही बातें पाई जाय उसको देव और जिसमें दोनों ही न हों उसको केवल संख्या पूरी करनेवाला ही स. मझना चाहिये । देवशब्दका निरुक्तिसिद्ध अर्थ भी यही होता है कि इन्द्रादिक भी जिसकी स्तुति और बंदना करें। अतएव शुद्धात्म द्रव्यको अथवा उसके मूल कारण इस चारित्रशुद्धिसे युक्त जीवको ही देव समझना चाहिये । फलतः मुमुक्षुओंको चाहिये कि वे इस चारित्रशुद्धि और उसका आराधन करनेमें फलसिद्धितक अवश्य ही निरंतर रत रहे । जैसा कि कहा भी है कि द्रब्यस्य सिबिश्चरणस्य सिद्धी द्रव्यस्य सिद्धौ चरणस्य सिद्धिः। बुद्ध्वेति कर्माविरताः परेपि द्रव्याविरुद्धं चरणं चरन्तु । इस प्रकार चारित्रके विषयमें उद्योतनादिक पांचो आराधनाओंका प्रकरण समाप्त हुआ। यहाँसे चार श्लोकोंमें माहात्म्यका वर्णन करना चाहते हैं। किंतु उसमें सबसे पहिले चारित्रमें रुचि उत्पन्न करनेकेलिये उसके अभ्युदयरूप आनुषङ्गिक फलको और मोक्षरूप मुख्य फलको दिखाते हैं:-- सदृग्ज्ञप्त्यमृतं लिहन्नहरहर्भोगेषु तृष्णां रहन् । वृत्ते यत्नमथोपयोगमुपयन्निर्मायमूर्मीनऽयन्। .. तत्किचित् पुरुषचिनोति सुकृतं यत्पाकमूर्छन्नव, - अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy