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________________ अनगार | तथानुभातस्वरूप ज्ञानमय परिणत अपनी आत्मामें जो उत्पाद व्यय ध्रौव्यरूप अस्तित्व है वही जिसका स्व रूप है ऐसे चारित्ररूपी अमृतका निरंतर और अतिशयेन पान करके-उसमें अत्यंत उपयुक्त होकर, जिस प्रकार संसारमें लोग अमृतमय-स्वादु भोजन पान करने के बाद उसको पकाने के लिये-भुक्त अन्नका अभीष्ट रस बने इसलिये निराकुलताको अथवा सवारी विनोद आदिके द्वारा प्रसन्नताको धारण किया करते हैं उसी प्रकार इस चारित्ररूपी अमृतको जो कि आत्माको अजरामर बनानेका कारण है पकानेके लिये-अभीष्ट फल देनेकी तरफ परिणत करने के लिये निराकुलताको अथवा ख्याति लाभ पूजा आदिकी अपेक्षारूप क्षोभसे रहित होकर-निराकुलतया उसीको धारण करता है और उसके पानका अनुवर्तन करनेके लिये ही आगमोक्त तीर्थयात्रादि किसी भी व्यवहारको करके भी मरणपर्यंत भी उसका नहीं छोडता, प्रत्युत अधिकाधिक रूपमें उ. सका पान करता रहता है, नियमसे उसको देव समझना चाहिये ।। भावार्थ -- उद्यमनादिका सामान्य स्वरूप पहिले लिखचुके हैं किंतु प्रकृतमें जो ये चारो बातें बताई हैं उ. नका अभिप्राय इस प्रकार है कि: जीवसहावं णाणं अप्पडिहददंसणं अणण्णमयं । चरियं च तेसु णियदं अस्थित्तमणिंदियं भणियं इसको ही मोक्षका कारण समझकर निरंतर और अत्यंत उसमें उपयुक्त होनेको चारित्रका उद्यमन स. मझना चाहिये। फल देनेतक आकुलतारहित होकर उसके धारण करनेको उसका निर्वहण, दसरे तीर्थयात्रादि व्यवहारचारित्रके न करनेपर तो बात ही क्या, करके भी मरणपर्यन्त उनके न छोडनेको निस्तरण, तथा उत्तरो. अध्याय ५११ १-चारित्रको
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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