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________________ नर्म इस पद्यमें अपि शब्द जो दिया है उससे यह अभिप्राय भी ग्रहण करलेना चाहिये कि उक्त श्रमण केवल छेदोपस्थापन संयमका ही अनुसरण नहीं करता किंतु कमी कमी पुनः सामायिक संयमपर भी अधिरोहण किया करता है। इस प्रकार चारित्रके उद्मोतनका निरूपण करके अब उसके उद्यमनादिक-उद्यमन, निर्वहण, सिद्धि और निस्तरणका भी निरूपण करते हैं: ज्ञेयज्ञातृतथाप्रतीत्यनुभवाकारैकटग्बोधभाग्, दृष्टुज्ञातृनिजात्मवृत्तिवपुषं निष्पीय चर्यासुधाम्। . पक्तुं बिभ्रदनाकुलं तदनुबन्धायैव कंचिद्विधि, कृत्वाप्यामृति यः पिबत्यधिकशस्तामेव देवः स वै ॥ १७७ हेयोपादेयरूप जाननेयोग्य तत्वोंको ज्ञेय कहते हैं और जाननेवाले शुद्ध चित्तस्वरूप आत्माको ज्ञाता कहते हैं । इन दोनोंका जैसा कि वस्तुतः स्वरूप है, अथवा जैसा कि सर्वज्ञ वीतरागके उपदेशानुसार आगममें वर्णित है तदनुसार इन दोनोंके विषयमें अथवा ज्ञाता भी ज्ञेयरूपसे भिन्न नहीं है, वह भी ज्ञेयत्वसे उपलाक्षत ही है अत एव ज्ञेयरूप ज्ञाताके विषयमें जो प्रतीति होती है उसको सम्यग्दर्शन कहते हैं। इसी प्रकार ज्ञेय और ज्ञाताके विषयमें अथवा ज्ञेयरूप ज्ञाताके विषयमें जो तथाभूत अनुभवाकारका होना उसको सम्यग्ज्ञान कहते हैं। ये दोनो ही आकार-तात्विक सम्यक्त्व और ताखिक ज्ञान आत्माके मुख्य स्वरूप हैं । अत एव तादात्म्यरूपसे इनको धारण करनेवाला जो मुमुक्षु द्रष्टा-जैसा कि ऊपर तात्त्विक सम्यक्त्वका स्वरूप कहा गया है तदनुसार ज्ञेय ज्ञाताकी तथाप्रतीतिरूप परिणत, और ज्ञाता-यज्ञाताके विषयमें बध्याय अ.ध. ६५
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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