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मनगार
और भी चोरीके दोषोंको प्रकाशित करते हुए उसका त्याग करनेकेलिये दृढ करते हैं:
गुणविद्यायशःशर्मधर्ममर्माविधः सुधीः । अदत्तादानतो दूरे चरेत्सर्वत्र सर्वथा ॥ ५३
गुण विद्या यश शर्म-कल्याण और धर्म इन सबके मर्मका छेदन करनेवाले अदत्तादानसे सम्यग्ज्ञानियोंको सर्वत्र-समस्त देश और समस्त कालमें तथा सर्वथा-सभी भंगोंसे दूर ही रहना चाहिये।
भावार्थ-दूसरेकी विना दी हुई किसी भी धनादिक वस्तुके ग्रहण करलेनेको चोरी कहते हैं। जिस प्रकार प्राणियोंके मर्मपर आघात होते ही उनका मरण हो जाता है उसी प्रकार चौर कर्ममें प्रवृत्ति होते ही मनुष्योंके कुलीनता नम्रता धीरता आदि गुण तथा अनेक प्रकारकी विद्याएं और सुख तथा धर्म सब नष्ट होजाते हैं।
ज्ञान और संयमादिकके साधनोंको यदि कोई विधिपूर्वक दे तो उनको ग्रहण करना चाहिये ऐसी शिक्षा देते हैं:
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वसतिविकृतिबर्हवृसीपुस्तककुण्डीपुरःसरं श्रमणैः ।
श्रामण्यसाधनमवग्रहविनाग्राह्यमिन्द्रादेः ॥ ५४ ॥ ___ आगममें मुनियोंको कोई भी पदार्थ ग्रहण करनेका जो विधान बताया है उसी विधिके अनुसार यदि कोई देवेन्द्र या नृपति प्रभृति श्रामण्यके साधन-अध्ययन, कायशुद्धि, तथा संयमादिककी सिद्धिके कारणभूत वसति-प्रतिश्रय, विकृति-भष्म, वई-पिच्छ, वृसी-व्रतियोंका आसन, पुस्तक कमण्डलु आदि पदार्थ दे तो तपस्त्रियोंको वे ग्रहण करने चाहिये ।