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________________ अनुर नृशंसेऽरं क्वचित्स्वैरं कुतश्चिन्मारयत्यपि । शुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिवित्तः स्याद्वघमर्षणः ॥ १०१ ॥ . यदि कभी कोई चोर प्रभृति नृशंस मनुष्य क्रूर कर्म करनेवाला आदमी दृष्ट या अदृष्ट किसी भी कारण के बश शीघ्र ही स्वच्छन्द होकर मार डालने के लिये तयार हो उस समय में जो साधु अपने शुद्धात्म द्रव्य के अनुभवसे विश्वस्त होकर स्थिर रहता है उसीको वधपरीषहका विजयी समझना चाहिये । भावार्थ- जो साधु किसी भी क्रूर जीवके द्वारा अपना प्राणापहार होनेपर भी ऐसा विचार करता है कि यह जीव मेरे शरीरका घात करता है जो कि विनश्वर और दुःखद ही है; किंतु आत्मस्वरूप ज्ञानका घात नहीं करता जो कि उससे सर्वथा विपरीत अविनश्वर और सुखमय है । उसीको वषबाधाका अबाध विजेता समझना चाहिये । साधुओंको याचना परीषद जीतने के लिये भी उत्साहित करते हैं: भृशं कृशः क्षुन्मुखसन्नवीर्यः, शम्पेव दातॄन् प्रतिभासितात्मा । ग्रासं पुटीकृत्य करावयाञ्चा, तोपि गृह्णन् सह याचनार्तिम् ॥ १०२ ॥ - हे साधो ! प्राण निकल जानेपर भी आहार वसतिका और औषध आदिके लिये मैं किसीसे याचना तो नहीं ही करूंगा किंतु दीन वचन मुखचैवर्ण्य और शरीर के इशारे आदिसे याचना करने का अन्तर्गत भाव भी प्रकट न करूंगा, इस प्रकार अयाचनाव्रतका धारण करनेवाला तू, दीखने लगी हैं हड्डी और नसें जिसकी ऐसा अत्यंत कृश होकर मी तथा क्षुधा मार्गगमन तपस्या और रोग आदिके द्वारा अपनी स्वाभाविक शक्तिके क्षीण ૬૪૮
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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