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________________ बनगार ०५८ कहतहा जीवके ज्ञानादिक पुद्गल के रूपादिक धर्मके गतिहेतुत्वादिक अधर्मके स्थितिहेतुत्वादिक और आकाशके अवगाहहेतुत्वादिक तथा कालके वर्तना आदि गुण प्रसिद्ध हैं। इन्हीको द्रव्य गुणपर्याय लोक कहते हैं। रत्न प्रभा आदि पृथिवियों और जम्बूद्वीपादिक द्वीपों तथा ऋजुविमानादि विमानोंको क्षेत्रपर्यायलोक कहते हैं। आयुके जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेदोंको भवानुभाव, और जिनसे कि कर्मीका ग्रहण या परित्याग हुआ करता है उन असंख्यात लोक प्रमाण शुभाशुभ परिणामोंको भाव परिणाम लोक कहते हैं। इस प्रकार लोकके नौ भेद हैं। अपने सम्पूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा जिन्होने इस नौ भेद रूप लोकको प्रकाशित किया है उन वर्तमान चौवीस तीर्थकरोंके, अथवा भूत भविष्यत् वर्तमान सभी अर्हन्तोंके गुणोंका भक्ति पूर्वक महत्ववर्णन करनेको चतुर्विंशतिस्तव कहते हैं। इसके नामादिक छह भेदोंको व्यवहार और निश्चयकी अपेक्षासे दो भागोंमें विभक्त करके बताते हैं: स्युनामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालाश्रयाः स्तवाः । व्यवहारेण पञ्चाादेको भावस्तवोऽहंताम् ॥ ३८ ॥ चतुर्विशतिस्तवके छह भेद हैं--नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल और भाव । इनमेंसे आदिके पांच भेद व्यवहार नयकी अपेक्षासे और अन्तका एक भावस्तव निश्चय नयकी अपेक्षासे है। इनका विशेष वर्णन करनेकेलिये क्रमानुसार पहले नामस्तनका स्वरूप बताते हैं: अष्टोत्तरसहस्रस्य नाम्नामन्वर्थमहताम् । वीरान्तानां निरुक्तं यत्सोऽत्र नामस्तवो मतः ॥ ३९ ॥ वृषभादिक महावीर पर्यन्त चौवीस तीर्थंकरोंका अथवा सभी अर्हन्तोंका एक हजार आठ नामोंसे अर्थके अनुसार निर्वचन करना इसको नामस्तव कहते हैं।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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