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________________ । निश्चय नयकी अपेक्षासे तो मोहनीय कर्मका क्षय होजानेपर और केवलज्ञानके उद्भूत होजानेपर विशिष्ट HI करणसे युक्त जीव अयोगकेवल गुषस्थानके अंतिम समयमें अशरीरताके कारणभूत रत्नत्रयके द्वारा अबाध्य पद -मोक्षरूप परिणत हो जाता है; क्योंकि साक्षात् कारण वही है। किंतु व्यवहार नय से अयोगकेवल गुणस्थानके अंतिम समयसे पहले के समयवर्ती, रलंत्रएको भी मोबा. काल कहा जा सकता है। मुक्तात्माओं के स्वरूपका विरूपण करते हैंप्रमणे मसिवन्मले खमसि स्वार्यप्रकाशात्मके , . मजन्तो निरुपाख्यमोघचिदचिन्मोक्षार्थितीर्थक्षिपः । कृत्त्वानाद्यपि जन्म सान्तममृतं साद्यप्यनन्तं त्रिताः, सद्दाधीनयवृत्तसंयमतपःसिद्धाः सदानन्दिनः ॥ १५ ॥ समीचीन दर्शन बान नय चारित्र संयम और वप इन छह उपायोंके द्वारा सिद्ध-आत्मस्वभावको सिद्ध करनेवाले मुक्तात्मा द्रव्य और भावरूप कर्ममलके सर्वथा क्षीण हो जानेपर मणिके समान अपने और समस्त पर पदार्थोके प्रकाशक निज तेजमें निमग्न होते हुए निरुपाख्य मोघचित् और अचित् इस तरह भिन्न भिन्न मोक्षका स्वरूप माननेवालोंके तीर्थ-आगमका परित्याग कर अनादि भी संसारको नष्ट कर सादि किंतु अनन्त अमृत-मोक्षपदको प्राप्त करलेते हैं और वे सदा आनन्द-आत्मिक सुखका अनुभव करते रहते हैं। भावार्थ- ऊपर सिद्धिके जो छह उपाय बताये हैं वे आरम्भ अवस्थाकी अपेक्षासे हैं। क्योंकि कोई तो सम्यग्दर्शनकी प्रधानतासे रत्नत्रयको पूर्ण कर समस्त कर्ममल --कलंकको ना कर निज स्वरूपकी प्राप्तिरूप सिद्धिको प्राप्त करते हैं और कोई सम्यग्ज्ञानकी प्रधानतासे तथा कोई नय आदिकी प्रधान ISE अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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