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________________ अनगार योगश्छिद्रपिधानमादधदुरूद्योगः स्वपोतं नये, नो चेन्मक्ष्यति तत्र निर्भरविशत्कर्माम्बुभारादसौ ॥७॥ - अनंत चतुष्टयरूप अवस्थाको मुक्ति कहते हैं । जो व्यक्ति इस अवस्थाको प्राप्त करके परमात्मा बनगये हैं उन्हे मुक्तिका धाम या आश्रम समझना चाहिये । यह मुक्तिधाम सम्पूर्ण नगरों में प्रधान तथा समस्त आतङ्कोआपत्तियों और विपत्तियोंके द्वारा हृदयमें होनेवाले क्षोभोंसे सर्वथा रहित है। किंतु इस स्थानको प्राप्त करनेके लिये संसाररूपी समुद्रको पार करना पड़ता है। अतएव जो साधु उस स्थानको प्राप्त करनेके लिये अभिमुख हुए हों उन्हें महान् उद्योग करके-दश प्रकारके धर्म और आठ प्रकारकी शुद्धियोंमें विपुल उत्साहको धारण करके-अप्रमत्त संयत होकर प्रशस्त रत्नोंके समूहसे भरे हुए-सम्यग्दर्शनादिक गुणोंसे परिपूर्ण अपने आत्मारूपी जहाजको उसके छिद्रोंके समान योगोंको रोककर जिनका कोई प्रतिकार नहीं किया जा सकता ऐसी विपचियोंसे भयंकर इस संसाररूपी समुद्रसे पार कर देना चाहिये । क्योंकि यदि योगरूपी छिद्रोंको रोका न जायगा तो उनके द्वारा झरझर मरते हुए कर्मरूपी जलके भारसे वह आत्मारूपी जहाज संसारसागरमें अवश्य ही डूब जायगा। इस प्रकार विचार करनेवाले साधुके उत्तम क्षमादिक धर्मोके विषयमें कल्याणकारिणी बुद्धि स्थिर होती है। क्रमप्राप्त संवर भावनाका स्वरूप बतानेके लिये उसके गुणोंका विचार करते है: कर्मप्रयोक्सपरतन्त्रतयात्मग्ले प्रव्यक्तभूरिरसभावभरं नटन्तीम् । चिच्छक्तिमग्रिमपुमर्थसमागमाय, व्यामेधतः स्फुरति कोपि परो विवेकः ॥ ७ ॥ . जिस प्रकार लोक नृत्यकर्मक प्रयोक्ता नटाचार्यके अधीन होकर रङ्गभूमिमें नटी शृङ्गारादि नाना प्रकारके रसों और भावोंके अद्भुत चमत्कारको दर्शकोंके सम्मुख प्रकट करती हुई नृत्य किया करती है किंतु जो पुरुष
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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