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________________ बनमार . इस प्रकार स्वाध्यायके माहात्म्यका वर्णन किया / अब क्रमप्राप्त प्रतिक्रमणके माहात्म्यको बतानेका प्रा. रम्भ करते हैं: दुर्निवारप्रमादारिप्रयुक्ता दोषहिनी। प्रतिक्रमणदिव्यास्त्रप्रयोगादाशु नश्यति // 9 // जिनका निवारण नहीं किया जा सकता ऐसे प्रमाद रूपी शत्रुओंके द्वारा प्रेरित अतिचारोंकी सेनाका नाश प्रतिक्रमणरूपी दिव्य अस्त्रोंके प्रयोग से बहुतही जल्दी होजाया करता है। मावार्थ-उत्तम कार्योंके सम्पादन करनेमें उत्साहका न होना या उन विषयों में सावधान न रहना इसको प्रमाद कहते हैं। यह प्रमाद साधारण प्रयत्न के द्वारा दूर नहीं किया जासकता / इसके द्वारा आत्माका वास्तविक कल्याण या स्वार्थ नष्ट होता है, अतएव इसको शत्रुके समान समझना चाहिये / मुमुक्षुओंको संयमका पालन करने में अनेक प्रकारके दोषों-अतीचारोंकी सेना जो आघेरती है वह इस प्रमादशत्रुकी प्रेरणासे ही। किंतु इसका निवारण सहज नहीं है / अतएव जिस प्रकार किसी बलवान शत्रुका निवारण देवोपनीत हथियार चलाकर ही किया जाता है उसी प्रकार इस प्रचण्ड शत्रुका निवारण भी प्रतिक्रमणरूपी दिव्य आयुधके विधिपूर्वक प्रयोग करनेसे ही हो सकता है। जैसा कि कहा भी है कि: जीवे प्रमाद्ज़निताः प्रचुराः प्रदोषा, - यस्मात्प्रतिक्रमणतः प्रलयं प्रयान्ति / . तस्मात्तदर्थममलं मुनिबोधनार्थ, वक्ष्ये विचित्रभवकर्मविशोधनार्थम् / / जीवके प्रमादसे उत्पन्न हुए प्रचुर और बडे 2 भी दोष इस प्रतिक्रमणके प्रसादसे की प्रलयको प्राप्त हो जाया करते हैं। अत एव उसका निदोष अर्थ मुनियोंको जाननेके लिये और विचित्र संसारमें संचित कमाको दूर करनेके लिये में कहूंगा। इस कथनसे सिद्ध है कि प्रमादजन्य महान् भी दोष प्रतिक्रमणके द्वारा दर हो जाया करते हैं /
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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