SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनंगार २३२ अध्याय २ क्षेप्तुं क्षमादिपरमास्त्रपरः सदा स्यात् । धर्मोपवृंहणधियाऽबलवालिशात्म, - युध्यात्ययं स्थगायितुं च जिनेंद्रभक्तः ॥ १०५ ॥ / जो मोक्षकी इच्छा रखेनवाले भव्य हैं उनको चाहिये कि वे अपने साधर्मी भाइयोंमें जो अशक्त या अज्ञानी हैं उनके उसे अशक्ति अथवा अज्ञानके कारण उत्पन्न हुए अत्ययों - दोषोंको धर्मोपबृंहणकी बुद्धिसे- मैं इनके इन अज्ञानजनित या अशक्तिजनित दोषोंको दूर कर उनकी जगह धर्मकी वृद्धि कर दूं - इस धर्मवृद्धिकी बुद्धिसे आच्छादित करने केलिये जिनेन्द्रभक्त बनें । जिनेन्द्रभक्त सेठके समान आचरण करें अथवा जिनेन्द्रदेवकी भक्ति करें । तथा अपने बन्धुकी तरहसे उपकार करनेवाले सम्यक्त्व या रत्नत्रयको अभिभूत - व्याहतश क्ति करदेनेवाले कषायका, जो कि अत्यंत दुर्निवार होनेके कारण बिलकुल राक्षस के समान है, निग्रह करने केलिये उत्तम क्षमा उत्तम मार्दव उत्तम आर्जव प्रभृति दिव्य और प्रधान अस्त्रोंको सदा धारण करें। एक तो सम्यक्त्व या रत्नत्रय के भावार्थ-मुमुक्षुओं को उपगूहनके पालन करनेमें दो काम करने चाहिये। विरोधी कषायका दलन, दूसरा साधर्मियोंके दोषोंका धर्मबुद्धिसे आच्छादन । स्व और परके स्थितीकरणका आचरण करनेका उपदेश देते हैं: - दैवप्रमादवशतः सुपथश्चलन्तं, स्वं धारयेघु विवेकसुहृद्वलेन । तत्प्रच्युतं परमपि द्रढयन् बहुखं, स्याद्वारिषेणवदले महतां महार्हः ॥ १०६ ॥ धर्म ० २३२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy