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________________ । अनगार और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रयका आविर्भाव काने लिय इच्छाके रोकनेको-मन इन्द्रिय और शरीरके इष्टानिष्ट विषयोंमेंसे इष्टके ग्रहण करनेकी और अनिष्टके छोडनेकी जो अभिलापा हुआ करती है उसके न होने देनेको ही तप कहते हैं। “ इस प्रकार " इच्छाका समाचीनतयः निरोध" यह तपका लक्षण उसकी धातु के अर्थके अनुसार ही है। निरमी प्रकारान्तरसे उसका विरक्तिसिद्ध ही लक्षण बताते हैं: यद्वा मार्गाविरोधेन कर्मोच्छेदाय तप्यते । अर्जयत्यक्षमनसोस्तत्तपो नियमकिा ॥ ३ ॥ उपर्युक्त रत्नत्रयमें किसी भी प्रकारका आघात न पहुंचाकर सम्पूर्ण शुभाशुभ कमाका निर्मूल नाश करनेके लिये जो मुमुक्षु साधु इंन्द्रिय और मनके विरुद्ध आचरण करता है --मन व इन्द्रियों को अपने अपने विषयोंमें प्रवृत्त होनेसे रोकता है उसकी इस विरुद्ध प्रवृत्तिको ही तप कहते हैं। भावार्थ-प्रत्येक संसारी आत्मा मन व इन्द्रियों के अधीन हो रहा है। किंतु मुमुक्षु साधु इसके विरुद्ध आचरण करता है। वह मन और इन्द्रियोंको आत्माके अधीन बनाता है । बस, उसके इस विरुद्धाचरणको ही तप कहते हैं। इस प्रकार तपका निरुक्तिसिद्ध लक्षण बताया । फिर भी ग्रन्थान्तरोंमें जो उसका लक्षण बताया है उसका भी उल्लेख करते हैं और उसके भेद प्रभेदोंका वर्णन करते हुए उसका अनुष्ठान करनेका उपदेश देते हैं संसारायतनानिवृत्तिरमृतोपाथे प्रवृत्तिश्च या, तद्वत्तं मतमौपचारिकमिहोद्योगोपयोगी पुनः । निर्मायं चरतस्तपस्तदुभयं बाह्यं तथाभ्यन्तरं, पोढाऽत्राऽनशनादि बाह्यमितरतु षोढेव चेतुं चरेत् ॥४॥
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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