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________________ बनगार विलासोंका आनन्दपूर्वक दर्शन किया करते हैं वेही अंदमें शान्तरसका सर्वकाल पान किया करते हैं। इसी तरह और भी कहा है कि: कर्मभ्यः कर्मकार्येभ्यः पृथग्भूतं चिदात्मकम् । आत्मानं भावयेन्नित्यं नित्यानन्दपदप्रदम् ।। यह चित्स्वरूप आत्मा कर्म और उसके फलोंसे सर्वथा भिन्न है।ऐसा नित्य ही अनुभवन करना चाहिये। क्योंकि उसीसे शास्वत आनन्दरूप पदकी प्राति हुआ करती है । समयसारमें भी ऐसा ही कहा है कि: कम्मं जं पुवकयं सुहासुहमणेयवित्थरविसेसम् । तं दोसं जो चेयह सो खलु आलोयणं चेया ।। णिश्च पञ्चक्खाणं कुम्वइ णिच्चं च पडिक्कमइ जो य । णिञ्च बालोचेइय सो हु चरित्तं हवइ चेया ।। - पूर्वकृत कर्म शुभ और अशुभ इस तरह दो प्रकारका है। इसके और विशेष मेद अनेक हैं। जो भव्य | इनके विषयमें ये दोष हैं ऐसा विचार करता है उसीको आलोचन करनेवाला समझना चाहिये । जो नित्य ही प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण और आलोचन किया करता है उसको सम्यक्चारित्रका अनुभविता या स्वामी समझना चाहिये। उपर्युक्त सम्पूर्ण अर्थका अभिप्राय नीचे लिखी हुई कारिकामें पाया जाता है । इस लिये इस कारिकाका नित्य ही पाठ करना चाहिये। मानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीवशुद्धम् । अज्ञानसंचेतनया तु धावन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि बन्धः ॥ हमेशा ज्ञानका अनुभवन करनेसे अत्यंत शुद्ध ज्ञान प्रकाशित हुआ करता है। और अज्ञानका अनुभव करनेसे कर्मोंका बन्ध होता है जिससे कि ज्ञान की शुद्धि होना रुक जाता है। इसी अभिप्रायका संग्रह निम्नलिखित कारिकाओंमें भी पाया जाता है, अतः एव मका मी नित्य विचार करना चाहिये । यथा: ध्याय ७९.
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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