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________________ बनगार ०९० चध्याय ८ saha सर्वथाचं प्रतिक्रामन्नुबदालोचयन् सदा । प्रत्याख्यान् भाविसदसत्कर्मात्मा] वृत्तमस्ति चित् ॥ १ नैष्फल्याय क्षिषे त्रेधा कृतकारित संमतम् । कर्म स्वाचेतयेऽन्यन्तमिदोद्यद्रन्ध उत्तरम् ॥ २ ॥ अहमेवाहमित्येवं ज्ञानं तच्छुद्धये भजे शरीराद्यहमित्येवाज्ञानं तच्छेतृ वर्जये ॥ ३ ॥ अर्थात् - जो पूर्वसंचित पुण्यापुण्यरूप कर्मोंका सर्वथा प्रतिक्रमण किया करता है, और उदयमें आते हुओंकी सदा आलोचना किया करता है, तथा आगामी होनेवाले कमका भी प्रत्याख्यान किया करता है, उस चित् स्वरूप आत्माको चारित्र समझना चाहिये । अत एव मैं मन वचन और कायके द्वारा कृत कारित और अनुमोदित कमको निष्फल बनानेके लिये छोड़ता हूं। तथा जो उदयमें आरहे हैं उनके विषय में मैं ऐसा विचार करता हूं कि ये मेरी आत्मासे सर्वथा भिन्न हैं । इसी प्रकार उत्तर कालीन कर्मों को भी मैं रोकता हूं -नवीन कर्मो का संचय न हो अथवा संचित कर्मों का भविष्य में उदय न हो इसका प्रयत्न- प्रत्याख्यान करता हूं। " अमैं इस शब्द के द्वारा जिसका बोध होता है वही मैं आत्मा हूं, " ऐसा समझने को ही सम्यग्ज्ञान कहते हैं । यही ज्ञान आत्माकी शुद्धिका कारण है । और इसके प्रतिकूल शरीरादिकको ऐसा समझना कि ये मैं हूं अज्ञान है। इस अज्ञानके निमित्त आत्माकी शुद्धि नष्ट होती है - अशुद्धि उत्पन्न होती है । अत एव आत्मशुद्धि के लिये मैं इस अज्ञानको छोड़ता हूं और ज्ञानका सेवन करता हूं । 1 भावार्थ- बन्धकी कारणभूत समस्त या व्यस्त - सम्पूर्ण या एक एक करण क्रियाओं में प्रवृत्ति करके यह ata योग और कषायके वश होकर जिन कर्मों का संचय करता है वे संक्षेपमें दो प्रकार के हैं। एक पुण्य रूप दूसरे पापरूप | सातावेदनीय शुभ आयु ( तिर्यगायु मनुष्यायु और देवायु ) शुभ नाम [ मनुष्यगति देवगति पंचेन्द्रिय जाति शेरीर आङ्गोपाङ्ग निर्माण आदि ] और शुभगोत्र इनको पुण्य कर्म कहते हैं। बाकी ज्ञानावरणादिक प्रकृतियोंको पापकर्म कहते हैं । इन सभी कमोंका जो व्यक्ति उदयमें आने से पहले ही " मिथ्या मे दुष्कृतं भवतु " ७९०
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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