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अनगार
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ध्यानं रत्नत्रयं तस्मात् तस्मान्मोक्षस्ततः सुखम् ॥ ११४ ॥ जिससे कि इष्ट और अनिष्ट पदार्थोंके वास्तविक स्वरूपका ज्ञान नहीं हो पाता किंतु इष्टमें प्रीति-राग होता और अनिष्टमें अति द्वेष होता है उस मोहके और तत्सदृश दूसरे भी भावोंके नष्ट हो जानेसे चित्तमें स्थिरता-निश्चलता प्राप्त होती है। मनके स्थिर हो जानेसे ध्यान होता और ध्यानसे रत्नत्रयकी पूर्णता होती है। रत्नत्रयके पूर्ण होजानेसे मोक्षकी सिद्धि और मोक्षसे अनंत सुखकी प्राप्ति होती है।
शिव-कल्याणरूप है बुद्धि जिनकी और जिन्होंने सुमना-देवों तथा विद्वानोंको तृप्त करनेकेलिये जिनेन्द्र भगवान्के आगमरूपी क्षीरसमुद्रको भले प्रकार मथकर धर्मामृतको निकाल प्रकाशित किया है ऐसे श्रीमान् आशाधर सदा जयवंते रहो। तथा हरदेव नामक प्रसिद्ध वे भव्यात्मा इस ग्रंथको समृद्ध करें कि जिनके उपयोगकेलिये उन्ही आशाधरने इस ग्रंथकी टीकारूपी शुक्तिकी सुखपूर्वक रचना की है।
॥ प्रमथ अध्याय समाप्त ॥
भद्रम्
अध्याय