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________________ त्यत्वा सङ्गं सुधीः साम्यसमभ्यासवशाद् ध्रुवम् । समाधि मरणे लब्ध्वा हन्त्यल्पयति वा भवम् ।। ११२ ॥ वनगार ११७ प्रमाण नय निक्षेप और अनुयोगोंके द्वारा जिसकी बुद्धिमें व्युत्पन्नता प्राप्त हो गई है ऐसा भव्य पुरुष यदि चरमशरीरी हो तो उसी भवमें संसारको नष्ट कर देता है मुक्तावस्थाको प्राप्त करलेता है। यदि चरमशरीरी न हो तो वह समतारूप या सामायिकरूप परिणामोंका भले प्रकार अभ्यास करके उसकी निरंतर की गई भावनासे परिग्रहका त्याग कर और मरणसमयमें समाधि-रत्नत्रयकी एकाग्रताको धारण कर संसारकी मर्यादा-मवोंके प्रमाणको बिलकुल कम कर देता है-कुछ ही भवों में मुक्त हो जाता है। अभेद समाधिके माहात्म्यकी प्रशंसा करते हैं: अयमात्मात्मनात्मानमात्मन्यात्मन आत्मने। समादधानो हि परां विशाई प्रतिपद्यते ॥ ११३ ॥ जिसको स्वसंवेदनके द्वारा भले प्रकार साक्षात्कार हो चुका है ऐसा जीव इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न हुए -क्षायोपशमिक ज्ञानमय निजात्मस्वरूपसे हटकर शुद्ध चिदानन्दस्वरूप निजात्माकी सिद्धिकेलिये निर्विकल्प निजात्मामें स्वसंवेदनरूप निजात्मा ही के द्वारा शुद्ध चिदानन्दस्वरूप निजात्माका ही भले प्रकार ध्यान करके घातिकर्मोके क्षयसे उत्पन्न हुई अथवा समस्त कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न हुई विशुद्धिको प्राप्त कर लेता है। ध्यानकी सामग्रीका क्रम और उससे प्राप्त होनेवाले साक्षात् तथा परम्परा फलको बताते हैं इष्टानिष्टार्थमोहादिच्छेदाच्चतः स्थिरं ततः। अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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