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________________ अनगार ११६ अध्याग पर्यायोंकी तरह अशुद्ध ही है, और न फलभूत केवलज्ञानरूप शुद्ध पर्यायके समान शुद्ध ही है। किंतु अशुद्ध और शुद्ध दोनोंसे विलक्षण एक तीसरी ही अवस्था है । जो कि शुद्धात्मा के अनुभवरूप निश्चय रत्नत्रयात्मक और मोक्षका कारण तथा एक देश व्यक्त और एक देश ही निरावरण है। नित्य और अत्यंत निर्मल तथा स्व और पर पदार्थोंके प्रकाशन करनेमें समर्थ चिदानन्दात्मक परमात्माकी भावनासे उद्भूत शुद्ध निजात्मा के अनुभवरूप निश्वय रत्नत्रय धर्मको अमृतके समुद्रके समान समझना चाहिये । उसमें अवगाहन करनेवालोंके यदि उसके रसका लेशमात्र भी उदय या उदीर्णाको प्राप्त हो जाता है। तो बही अपनी उपासना करनेवालोंका अनुग्रह - कल्याण कर देता है । यही बताते हैं: - कथमपि भवकक्षं जाज्वलदुःखदाव,ज्वलनमशरणो ना बम्भ्रमन् प्राप्य तीरम् | -- श्रितबहुविधसत्त्वं धर्मपयूषसिन्धो,रसलवमपि मज्जत्कीर्णमृनोति विन्दन् ॥ १११ ॥ जिसमें दुःखरूपी दावानल बारम्बार और तीव्र रूपसे जल रहा है ऐसे संसाररूपी अरण्यमें अत्यन्त भ्रमण करते हुए जो शरणरहित पुरुष किसी भी तरह-बडे कष्टोंसे धर्मरूपी अमृतके समुद्रके उस तीरको कि जिसका निकटभव्य प्रभृति अनेक जीवोंने आश्रय लेक्खा है, प्राप्त करलेते और उसमें अवगाहन करनेवाले अत्यंत धन्य मुमुक्षुजनों घटमान योगियोंके द्वारा उद्गीर्ण- प्रकाशित रसके लेशमात्रको भी पालेते हैं; वे ज्ञान संयम आदिके द्वारा तथा हर्ष बल ओज और वीर्य आदिके द्वारा समृद्ध हो जाते हैं। धर्माचार्य के द्वारा जिसकी बुद्धिमें व्युत्पन्नता - रहस्यज्ञता प्राप्त हो गई है ऐसा निकटभव्य पुरुष परिग्रहत्यागादिकके द्वारा उसी भवमें या कुछ ही भवोंमें अपनी आत्माको संसाररहित बना देता है, यह बताते हैं: धर्म ११६
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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