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________________ अनगार ४३६ अध्याय ४ Naka Mas योतिभक्ततयात्मेति कार्यिभिः कल्प्यतेङ्गवत् । सोप्यकृत्त्येग्रणीर्भृत्त्यः स्याद्रामस्यांजनेयवत् ॥ १२० ॥ जिस प्रकार बहिरात्मबुद्धि मनुष्य अत्यंत श्लिष्ट रहेनेके कारण शरीरमें मोहवश आत्मकल्पना करने लगता है, उसी प्रकार कार्य - स्वार्थमें तत्पर रहनेवाला मनुष्य अतिभक्ति- अत्यंत अनुराग रखनेके कारण जिसमें अपनी कल्पना करने लगता है यह और मैं दो नहीं हैं जो यह है सो ही मैं हूं ऐसा समझने लगता है; ऐसा भी. भृत्य अपने स्वामीसे, रामचंद्र के हनूमानकी तरहसे हिंसादि अकृत्य कराने में अग्रणी बनजाता है । भावार्थ - लोकमें जो स्वामीके प्रति भक्तिवश कार्यका अच्छी तरह संचालन करते हैं उन सेवकोंको लोग अपना प्रतिरूप ही समझते हैं। किंतु जब ऐसे स्वामिभक्त भी सेवक समयपर स्वामी के आत्महित के विरुद्ध दुष्कृत्य कराने में प्रधान कारण बनजाते हैं तब अभक्त सेवकोंकी तो बात ही क्या है । अत एव सेवकनामक चेतन परिग्रहको भी आत्माका अहितकर ही समझ कर मुमुक्षुओं को उसका संग्रह न करना चाहिये । दासी दास परिग्रहके ग्रहणसे भी मनमें संताप ही होता है यह बताते हैं: अतिसंस्तवधृष्टत्वादनिष्ठे जाघटीति यत् । तदासीदासमृक्षीव कर्णात्ताः कस्य शान्तये ॥ - १२१ ॥ जो दासी और दास अत्यंत परिचय होजानेसे ढीठ होकर स्वामीके अनिष्ट - अनभिलषित भी कार्य के करने में पुनः पुनः प्रयत्न किया करते हैं क्या वे किसीको भी सुख या शांतिके कारण हो सकते हैं ? कभी नहीं । कानके पासतक पहुंचा हुआ भालू क्या किसीके भी अनिष्टका निवारण कर सकता है ? अतएव दासी दास परिग्रह भी अहितकर होनेके कारण त्याज्य ही है । ANART AT AN AAA 한다는 전 ४३६
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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