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________________ बनगार भाव्यं भव्यमिहागिनां मृगयते यज्जातु तद्भकुटिं, सयग्दर्शनवेधसो यदि पदच्छायामुपाच्छन्ति ते ॥ ६६ ॥ पुण्यके प्रसादसे कटीले भी वृक्ष-बबूर वगैरह कल्पवृक्ष हो जाते हैं। साधारण पाषाण चिन्तामणि रत्न होजाता है । और गौ-साधारण गौ कामधेनु होजाती है । अथवा उसकी अद्भुत शक्तिका वर्णन कहांतक किया जा सकता है। क्योंकि प्राणियोंका जगत्में ऐसा कोई भी कल्याण न तो है, न हुआ, न होगा कि जो कदाचित मी उस पुण्यकी भ्रकुटिकी अपेक्षा करे । क्योंकि जो सम्यग्दर्शनका आराधन करनेवाले हैं उनके उस पुण्यकी उपलब्धि होती है कि जिससे तीन काल और तीनो लोकोंमें तीर्थकरत्व सरीख पदों या अभ्युदयोंकी प्राप्ति हुआ करती है । भृकुटि शब्दके कहनेका अभिप्राय यही है कि जो महाप्रभु होता है वह अपनी आज्ञाका उल्लंघन करनेवालके प्रति क्रोधसे भृकुटि चढाता है । किंतु सम्पग्दर्शन का सहचारी ऐसा कोई भी पुण्य नहीं है कि जिसका कोई भी अभ्युदय उल्लंघन कर सके-जिसके अनुसार कोई भी कल्याण सिद्ध न हो सके। क्योंकि जितने भी अभ्युदय हैं वे सब सम्यग्दर्शनके सहचारी पुण्यका उदय होते ही सम्पन्न होजाते हैं । अत एव वे उसकी धुकुटिकी कदाचित् भी अपेक्षा नहीं करते । किंतु यह बात तभी हो सकती है जब कि वे पुण्यका सम्पादन करनेवाले सम्यग्दर्शनरूपी वेधा ब्रह्माके चरणोंका आश्रय लें। क्योंकि सम्यग्दर्शनकी सहचारिताके विना उस तरहका पुण्य सम्पन्न नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शनको ब्रह्मा कहनेका अभिप्राय यह है कि वह समस्त पुरुषार्थों के उत्पन्न करनेमें स्वतंत्र है। - जो मनुष्य मल प्रकार सम्यग्दर्शनको सिद्ध कर चुके हैं उनकी विपत् भी संपत ही होजाती है। इतना ही नहीं, किंतु उसका केवल नाम लेनेवाले भी सहज ही विपत्तियोंसे मुक्त हो जाते हैं। यही बात दिखाते हैं: बध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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