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धनगार
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अध्याय
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भावार्थ:- यहां पर मोक्षस्थानको जानेवालोंका मार्ग सूर्यको जो बताया है. उसका अभिप्राय यह है कि सिद्ध जीव लोकके अंतको जो जाते हैं सो सूर्यमण्डलको भेदकर जाते हैं । जैसा कि संन्यासविधिमें भी कहा है -
संन्यसन्तं द्विजं दृष्ट्वा स्थानाञ्चलति भास्करः । एष मे मण्डलं भवा परं ब्रह्माधिगच्छति ।।
द्विजको संन्यास लेता हुआ देखकर सूर्य भी मानो यह समझकर अपने स्थानसे चल जाता है कि यह मेरे मण्डलको भेदकर परम ब्रह्मको प्राप्त हुआ जाता है ।
तथा लोकमें भी कहा है कि
मह परमेसरं तं कंपेते पाविऊण रविबिम्ब । णिव्वाणजणियछिंद जेण कयं छारछाणणयं ॥
उस परमेश्वरको नमस्कार करो कि जिसको पाकर सूर्यका भी बिंब कँपजाता है।
इसी तरह आस्तिक्यको मार्गके समान इसलिये बताया है कि वह इष्ट स्थानकी प्राप्तिका कारण है । तथा सूर्यका संदेहादि राक्षसोंसे घिरे रहनेका कथन लोकोक्तिके आधारपर किया गया है।
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पुण्य भी जो समस्त कल्याणोंको उत्पन्न या पूर्ण कर सकता है या करता है सो भी सम्यक्त्वके ही अनुग्रहसे । यही बात दिखाते हैं:
वृक्षाः कण्टकिनोपि कल्पतरवो ग्रावापि चिंतामणिः, पुण्यागौरपि कामधेनुरथवा तन्नास्ति नाभून्नवा |
धर्म
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