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बनगार
ये तीनो ही विषय स्वामीकी अनुज्ञासे सम्बन्ध रखते हैं। इसी प्रकार योग्य और अनुज्ञात वस्तुके भी ग्रहण करनेमें आसक्ति न रखनेरूप चतुर्थ भावना तथा प्रयोजनमात्र ही उस वस्तुके ग्रहण करनेरूप पांचवीं भा. .. वना स्पष्ट है । ये भावनाएं आचारशास्त्रके अनुसार हैं। . उत्तरार्धमें प्रतिक्रमण शास्त्रके अनुसार पांच भावनाओंका स्वरूप बताया है । प्रतिक्रमण शास्त्रमें कहा
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है कि:
- देहणं भावणं चावि उग्गहं च परिग्गहे।
संतुठ्ठो भत्तपाणेषु तदियं वदमस्सिदो ॥ तृतीय-अचौर्य व्रतको आश्रित प्राप्त साधुकेलिये आगममें ये पांच भावनाएं बताई हैं। १ देहन-शरीर की अशुचिता या अनित्यता आदिका विचार, २ भावन-आत्मा और शरीरको भिन्न भिन्न समझना और निरंतर पुन: पुनः ऐसा विचार करना कि ये शरीरादिक मानों आत्माके एक प्रकारके खोल हैं । कर्मके उदयसे आत्मापर इनका व्यर्थ ही बोझ लदा हुआ है जिनसे कि उसका कुछ भी उपकार नहीं होता, इत्यादि। ३ परिग्रहका निग्रह-त्याग, जितने भी चेतन या अचेतनरूप पर पदार्थ हैं उनके सम्पर्कसे अथवा उनमें ममत्व रखनेसे आत्मा अपने हितमें माछित होजाता है अपने वास्तविक कल्याणकी सिद्धि नहीं कर सकता। अत एव इनका परिहार करना ही उचित है। ऐसा विचार करना। ४ भक्तसंतोष-विधिपूर्वक जैसा भी भोजन प्राप्त होजाय; चाहे खीर हो चाहे शाक हो उसीमें संतोष धारण करना और ऐसा समझना कि यह तो केवल शरीरकी स्थिरताका उपाय मात्र है। यदि न लिया जाय तो शरीर स्थिर नहीं रह सकता । और उसके विना तपश्चरणद्वारा कोका निर्जरण नहीं किया जा सकता। अत एव उसकी स्थिरताकेलिये निरन्तराय और विधिपूर्वक जो योग्य शुद्ध भोजन मिल गया वही ठीक है । अथवा भोजन न मिलनेपर ऐसा विचार करना कि अच्छा हुआ, अन्तराय कर्म उदयमें आकर निर्जीर्ण होगया । अतः मुझको भोजन नहीं मिला । इसलिये मेरी कुछ हानि नहीं हुई, इत्यादि । ५ पानसंतोष-भोज्य वस्तुकी तरह पेय वस्तुके लाभालाभमें भी संतोष धारण करना और उसकी प्राप्तिकेलिये गृद्धि-लोलुपता न रखना।
सध्याय
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