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________________ अनगार ६८३ क्लेश कहते हैं। यह तप भी मुमुक्षुओंके लिये आवश्यक है । अत एव प्रशान्त तपस्वियोंको इसका नित्य ही सेवन करना चाहिये। . यह शरीरके कदर्थनरूप तप अयन शयन आदि अनेक उपायोंके द्वारा सिद्ध हुआ करता है। प्रकृतमें यह उपाय छह प्रकार बताया है। यथा अयन, शयन, आसन, स्थान, अवग्रह. और योग। इनमें भी अयनके अनुसूर्यादिक, शयनके शवशय्यादिक, आसनके नीरासनादिक, स्थानके एकपदादिक, अवग्रहके अनिष्ठीवनादिक, और योगके आतपनादिक अनेक उत्तर भेद होते हैं । जैसा कि कहा भी है कि ठाणसयणासणेहिं विविहेहिमवग्गहेहिं बहुगेहिं । अणुवीचीपरिताओ कायकिले सो हवदि एसो॥ उत्तर मेदोंके नाम इस प्रकार हैं: -- अनुसूर्य प्रतिसूर्य तियक्सूर्य तथो+सूर्य च । तद्भमकेणापि गतं प्रत्यागमन पुनर्गत्वा ।। साधारं सविचार ससन्निरोधं तथा विसृष्टाङ्गम) समणदमेकपादं गृङ्गस्थित्या यतेः स्थानम् ।। समपर्यङ्कनिषद्योऽसमयुतगोदोहिकास्तथोत्कुटिका । मकरमुखहस्तिहस्ती गोशय्या चार्धपर्यङ्कः ।। वीरासनदण्डाद्या यतोवंशय्या च लगडशय्या च । उत्तानमवाक्शयनं शवशय्या चैकपाचशय्या च ।। अभ्रावकाशश्य्या निष्ठीवनवर्जनं न कण्डूया।' तृणफलकशिलेलास्वावसेवन केशलोचं च ॥ स्वापषियोगो रानापमानमदन्तघर्षणं चैव । कायलेशतपोदः शीतोष्णावापनाप्रभृति ॥ अध्याय ६८३
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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