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________________ अनंगार ६३४ सुखमचलमहिंसालक्षणादेव धर्माद्, भवति विधिरशेषोप्यस्य शेषोऽनुकल्पः । इह भवगहनेसावेव दूरं दुरापः, , प्रवचनवचनानां जीवितं चायमेव ॥१॥ अन्तरङ्गमें रागद्वेषादिका उत्पन्न न होना इसको अहिंसा कहते हैं। अविनश्वर सुखकी प्राप्ति इस अ. हिंसाधर्मसे ही हो सकती है । इसके सिवाय सत्यवचन अचौर्य प्रवृत्ति और ब्रह्मचर्य आदि जिन जिन धर्मोका आगममें विधान किया गया है वे सब इस अहिंसा धर्मके ही अनुयायी हैं। क्योंकि उनके द्वारा द्रव्य अथवा भावरूप अहिंसाका ही समर्थन किया जाता है । अत एव इस संसाररूपी वनमें यह अहिंसा धर्म ही अत्यंत दुर्लभ है। इसको सम्पूर्ण प्रवचन वचनोंका प्राण समझना चाहिये । जैसा कि कहा भी है कि: अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भव यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः। जो मुमुक्षु इस प्रकार निरंतर धर्मके वास्तविक स्वरूपका और फल का विचार करता रहता है उसके उस धर्ममें अनुराग होता और बढता रहता है।। इस प्रकार बारह भावनाओंका वर्णन करके अंतमें इस बात का उपदेश देते हैं कि जो साधु इन सम्पूर्ण अनुप्रेक्षाओंका अथवा इनमें जो कोई भी उसे इष्ट हों उन एक दोका भी ध्यान करता रहता है उसके हान्द्रशेका और मनका प्रसार होना रुक जाता है तथा आत्मस्वरूप में अपनी आत्माका स्वयं संवेदन होने लगता है । जिससे कि वह कृतकृत्य होकर जीवन्मुक्त अवस्थाको और तमें परममुक्तिको भी प्राप्त कर लेता है। इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽध्रुवादि, अध्याय - ६३४
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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