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अनगार
TENTISATTA
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धर्मात्मक और परमार्थतः सत्-समीचीन है-काल्पनिक नहीं है। जिस प्रकार शन्दका कोई भी एक अंश शब्दरूपको प्रकाशित करने में कारण और व्यवहारका साधक है उसी प्रकार उस वस्तुका भी एक एक अंश अनेकान्तात्मक वस्तुको प्रकाशित करनेका उपाय और प्रवृत्ति निवृत्तिरूप व्यवहारका साधक है । जब कि वह स्वयं सत्य और सत्य व्यवहारके साधक वस्त्वंशेकी विषय करनेवाला है तब वह मिथ्या नहीं हो सकता । जो अपने ही विषयभूत धर्मकी अपेक्षा करता है और शेष धोंकी अपेक्षा नहीं करता वह मिथ्या माना जाता है। क्योंकि वह दूसरे अनेक धोका अपलाप करता है। किंतु जो ऐसा नहीं है-जो पर्यायार्थिक द्रव्यार्थिककी और द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिककी भी गौणतया अपेक्षा रखता है वह नय सत्य है क्योंकि वह अपने विषयोंको दूसरे धर्मोंकी अपलाप न करके सिद्ध करता है । वह स्याद्वाद–अनेकांतधर्मका अनुयायी है।
आत्माको कुछ अंशमें विशुद्धि कुछमें संक्लेश होनेपर जो फल प्राप्त होता है उसको बताते हैं।--
येनांशेन विशुद्धिः स्याज्जन्तोस्तेन न बन्धनम् ।।
येनांशेन तु रागः स्यात्वेन स्यादेव बन्धनम् ॥ ११ ॥ आत्माके जिन अंशोंमें विशुद्धि-रागद्वेष और मोहका उपशम पाया जाता है उन अंशोंकी अपेक्षासे जीवके कर्मबन्ध नहीं हुआ करता । किन्तु जिन अंशोंमें रागादिकका आवेश पाया जाता है उनकी अपेक्षासे अवश्य ही बंध हुआ करता है ।
भावार्थ--यहांपर संवरके विषयमें नयविभाग बताया गया है। जो कि इस प्रकार है:
मिथ्यादृष्टि प्रथम गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय बारहवें गुणस्थानतक उत्तरोत्तर मंद मन्दतर और मन्दतम रूपसे अशुद्ध निश्चय नय प्रवृत्त हुआ करता है। इनमें तीन प्रकारका उपयोग होता है, अशुभ शुभ
अध्याय
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