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________________ ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो कि किंपाक फलके समान सेवनसमयमें ही सुंदर मालुम पडनेवाले किंतु परिणाममें दारुण मैथुनर्मका सेवन करना चाहे। ज्येष्ठज्योत्स्नेऽमले व्याम्नि मृले मध्यन्दिने जगत् ।। दहन कथंचित्तिग्मांशुश्चिकित्स्यो न स्मगनलः ॥ ६९ अनगार __ ज्येष्ठमास शुक्लपक्ष और मूल नक्षत्रमें तथा दिनको दो पहरके समयमें एवं जव आकाश निरभ्र मेषशून्य हो ऐसे भी समयमें अपने तीव्र तेजसे जगत् को दग्ध-संतप्त करते हुए प्रचण्डरश्मि - सूर्यका किसी प्रकार इलाज किया जा सकता है । शीतल जलका सेक करके या तलघर निकुंज पुष्पवाटिकादिकमें बैठकर अथवा दूसरे शीतोपचार करके उसका आतापजन्य क्लेश दूर किया जा सकता है। किंतु जिस समय यह कामदेवरूपी अग्नि प्रदी. प्त होती है उस समय इसका कोई भी प्रतीकार नहीं हो सकता । प्रत्युत ऐपा दखा गया है कि ज्या ज्यों इस अ. ग्निका शीतोपचार किया जाता है त्यों त्यों वह और भी अधिक प्रदीप्त होती है । जैसा कि कहा भी है कि: हारो जलार्द्रवसनं नलिनीदलानि, प्रालेयशीकरमचस्तुहिनांशुभासः । यस्येन्धनानि सरसानि च चन्दनानि, निर्वाणमेष्यति कथं स मनोभवाग्निः॥ ___ हार. जलसे भीगा हुआ वस्त्र, कमलिनीके पत्ते, शीतल जलकणोंका सिंचन करनेवाली हिमांशु-चन्द्रमाकी किरणें और सरस चन्दन इत्यादि वस्तुएं जिसके लिये ईधनका काम करती हैं वह मनोभवाग्नि-कामाग्नि निर्वाणको किस तरह प्राप्त हो सकती है। और भी कहा है कि अध्याय akokaalia ६७ १- यह समय सूर्यके सबसे अधिक प्रखर होनेका है।
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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