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________________ अनगार ७३ अध्याय १ व्यभिचरति विपक्षक्षेपदक्षः कदाचिद् - बलपतिरिव धर्मो निर्मलो न स्वमीशम् । तदभिचरति काचित्तत्प्रयोगे विपच्चेत्स तु पुनरभियुक्तस्तर्ह्यपाज क्रियेत ॥ ५५ ॥ जिस प्रकार प्रतिपक्षी शत्रुओं का निवारण करनेमें अत्यंत दक्ष और निर्दोष सेनापति रत्न अपने स्वामी चक्रवत्तसे कभी विरुद्ध नहीं होता उसी प्रकार विपक्षी अधर्म और उसके कार्योंका निवारण करनेमें समर्थ ..एवं निर्मल - अतीचाररोहत पालन किया गया धर्म भी अपने स्वामी प्रयोक्ता धर्मात्मासे कभी विरुद्ध नहीं होता । अतएव विपक्षी और उसके कार्यों विपत्तियोंको दूर करनेकेलिये सेनापतिकी तरह धर्मको ही प्रयुक्त करना चाहिये। किंतु ऐसा करनेपर भी यदि कोई देवकृत मनुष्यकृत तिर्यचकृत या अचेतनकृत विपत्तियां आकर प्राप्त हों तो जिस प्रकार उद्यक्त सत्पुरुषोंके द्वारा उस सेनापतिको ही फिरसे सबल बनाया जाता है उसी प्रकार उद्युक्त समीचीन उपायोंके द्वारा उस धर्मको ही फिरसे सबल बनाना चाहिये। क्योंकि धर्म और अधर्म इनमें जो सबल होगा वही जीतेगा । जिसका निवारण न किया जा सके ऐसे दुष्कृत - पापको अपना फल देनेमें प्रवृत्त होनेपर धर्म पुरुष - का उपकार ही करता है ऐसा उपदेश देते हैं । अन० ध० १० यज्जीवेन कषायकर्मठतया कर्मार्जितं तद् ध्रुवं, नाभुक्तं क्षयमृच्छतीति घटयत्युच्चैः कटूनुद्भटम् । भावान् कर्मणि दारुणेपि न तदेवान्वोति नोपेक्षते, धर्म०
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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