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अनगार
पहले यह बात कही जाचुकी है कि सम्यग्दर्शन निसर्ग या अधिगमके द्वारा उत्पन्न होता है । अत एव इन दोनोंका-निसर्ग और अधिगमका स्वरूप बताते हैं:
विना परोपदेशेन सम्यक्त्वग्रहणक्षणे ।
तत्त्वबोधी निसर्ग: स्यात्तत्कृतोधिगमश्च सः॥४८॥ सम्यक्त्व ग्रहण करनेके समय गुरु आदिकोंके उपदेशके विना ही तत्त्वबोधके होनेको निसर्ग और उपदेशके मिमिचसे तत्त्वज्ञान होनेको अधिगम कहते हैं। भावार्थ -दोनोंमें परोपदेशकी निरपेक्षता और सापेक्षताका ही अंतर है।
इसी धातको पुष्ट करते हैं:केनापि हेतुना मोहवैधुर्यात्कोपि रोचते ।
तत्त्वं हि चर्चानायस्तः कोपि च क्षोदखिन्नधीः ॥४९॥ जिनका मोह. वेदना अभिमादिकर्मस किसी भी निमित्तको पाकर दूर होगया है-सम्यग्दर्शनको पारनेवाली सति प्रकृतियोंका बाब निमिषश जिनके उपशम क्षय या क्षयोपशम हो चुका है उनमेसे कोई जीव तो ऐसे होते है कि जिनको बिना किसी च के विशेष प्रयासके ही तत्व हाच उत्पी हो जाती. है। और कोई ऐसे होते हैं कि जो कुछ अधिक प्रयास करनेपर ही बाह्य निमित्तके अनुसार मोहके दर हो जौनपर तत्वलचिको प्राप्त हो सकते हैं। वह यह अल्प और अधिक प्रयासका ही निसर्ग एवं अधिगम, अन्तर है। जैसा कि आगममें भी कहा है। यथा-.
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बध्याय