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________________ अनगार ही व्याधियों-शारीरिक कास श्वास आदि दुःखोंने अत्यंत दग्ध करदिया है-निःसार बनादिया है, जो अनेक प्रकारसे तिरस्कारका स्थान बन रहा है, जिसके हस्त पाद आदि अवयव कुत्सित कंपनेवाले और अकर्मण्य बनगये हैं, जिसने अपनी तृष्णा-अतिलोभ तथा ईर्ष्या अक्षमा दुर्वचनादिके द्वारा घरके स्त्री पुत्रादिकोंको भी उकता दिया है, और जिसके बाकीके रहे दो या तीन दांत भी बिल्कुल हिल रहे हैं, ऐसे इस वृद्ध पुरुषको, जिसको कि जराने अत्यंत व्याप्त कर रक्खा है, श्राद्धदेव-यमराज मानो रस समझ कर-यह ख्याल करके कि इसमें स्वाद अच्छा नहीं है, शीघ्र ही भक्षण नहीं करते । जिस तरहसे कि श्राद्धदेव-श्राद्धमें भोजन करनेवाले ब्राह्मण विरस आहारको शीघ्र ही नहीं खाया करते। इस प्रकार यह शरीर यद्यपि अनेक दोषोंसे युक्त है। फिर भी इसको परम सुख-मोक्षफलको देनेवाले धर्मका अ-कारण बनाकर सबसे उत्कृष्ट बनाना चाहिये ऐसी शिक्षा देते हैं: बीजक्षेत्राहरणजननद्वाररूपाशुचीदृग्, दुःखाकीर्ण दुरसविविधप्रत्ययातय॑मृत्यु । . अल्पाग्रायुः कथमपि चिराल्लब्धमीदृग् नरत्वं, सर्वोत्कृष्टं विमलसुखकृद्धर्मसिद्धयैव कुर्यात् ॥ ८५॥ इस शरीरका बांज माताका रज और पिताका वीर्य है। क्षेत्र माताका गर्भस्थान और आहार माताका निगला हुआ अन्नपान है। शुक्र आर्तव मल मूत्रके वहनका जो मार्ग है वही इसके उत्पन्न होनेका द्वार है। वात पित्त कफ धातु उपधातु तथा सदा आतुरता ही इसका स्वरूप है। इस तरह बीज क्षेत्र आहार उत्पत्तिद्वार और स्वरूपकी अपेक्षा यह अत्यंत अशुचि अपवित्र है । गर्भसे लेकर वृद्धावस्थातकके दुःखोंसे प्रचुरतया व्याप्त है। जिसका निवारण नहीं किया जासकता ऐसी नाना प्रकारके व्याधि शस्त्र बज्रपात आदि कारणोंसे होनेवाली इसकी मृत्यु - - अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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