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________________ अनगार ९२ अध्याय १ त कोपक्षुद्ध्यानशोकश्रमादिभिः " ॥ कोप क्षुधा ध्यान शोक परिश्रम इत्यादि कारणोंसे बल नष्ट हो जाया करता है। वृद्धावस्थाके फलका विचार करते हैं: . विस्रसोदेहिका देहवनं नृणां यथा यथा । चरन्ति कामदा भावा विशीर्यन्ते तथा तथा ॥ ८३ ॥ यह शरीर वन - उपवन के समान है; क्योंकि उपवनकी तरह इसका भी पालन पोषण आदि बडे प्रयत्नसे किया जाता है। ऐसे इस शरीररूपी उपवनको ज्यों ज्यों बुढापारूपी दीमक क्षुद्रजन्तु भक्षण करता जाता है त्यो त्यों मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले उसके पल्लव पुष्प फल आदिकी तरह कामदेवका उद्दीपन करनेवाले सौंदर्य बल वृद्धि प्रभृति भाव भी स्वयं ही विनष्ट होते जाते हैं । जब कि वृद्धावस्था अतिशय रूपसे आकर घेर लेती है उस अवस्थाका विचार करते हैं । - प्रक्षीणान्त:करणकरणो व्याधिभिः सुष्टिवाधि—, स्पर्द्धा दग्धः परिभवपदं याप्यकम्प्राऽक्रियाङ्गः । तृष्णेय द्यैर्विगलितगृह: - प्रस्खलद्वित्रदन्तो, ग्रस्येताद्धा विरस इव न श्राद्धदेवेन वृद्धः ॥ ८४ ॥ जिसका अन्तःकरण - मन और करण - इन्द्रियां विनाशोन्मुख हैं, जिसको आधि-मानसिक व्यथासे मानों स्पर्धा करके धर्म० ९२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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