________________
बनगार
इनका जन्म विक्रम सं. १२३० के करीब हुआ था और इस टीकाकी समाप्ति वि. सं. १३०० में हुई है. फिर इन्होंने धारामें आनेके बाद मालवाके राज्यकी पांच पीढियां देखली थीं। इसके सिवाय निम्नलिखित वाक्योंसे उनके वैराग्य पूर्ण परिणाम भी प्रकट होते हैं।
प्रभो भवाङ्गभोगेषु निर्विण्णोदुःखभीरकः । एष विज्ञापयामि त्वां शरण्यं करुणार्णवम् ॥ सुखलालसया मोहात् भ्राम्यन्बहिरितस्ततः । सुखैकहेतो मापि स्तवं न ज्ञातवान् पुरा॥ अद्य मोहग्रहावेशशैथिल्यात्किंचिदुन्मुखः ।
अनन्तगुणमाम्यस्त्वां श्रुत्वा स्तोतुमुद्यतः ॥ अत एव अनुमान होता है कि इस टीकाकी रचना पूर्व ही वे गृहस्थाश्रमसे निवृत्त हो चुके होंगे। इस प्रकार महापण्डित आशाधरजाकी राजमान्यता समाजमान्यता कीर्ति सदाचार और विरक्ति आदि गुणोंकी अविरुद्ध प्रवृत्तिको देखकर आजकलके लोगोंको अनेक प्रकारकी शिक्षाएं लेनी चाहिये। खासकर उन लोगोंको कि जो राजमान्यता कीर्ति या आजीविका आदिके लिये सदाचार के क्षयकी अपेक्षा नहीं रखते
पं. आशाधरजीकी जाति मातापिता पुत्रकला आदिका नाम, जन्मभूमि, अधिकतर निवासस्थान और उनकी उपाधि आदिका ज्ञान उन्हीकी प्रशस्ति तथा कृतिको देखनेसे हो सकता है, अत एव इस विषय में अधिक कानेकी आवश्यकता नहीं है।
आशाधरजीकी विद्वत्ताका परिचय उनके ग्रंथही दे रहे है।" नहि कस्तुरिकामोदः शपथेन प्रतीयते ।" अतएव न्याय साहित्य कोष वैद्यक आचार अध्यात्म पुराण और कर्मकाण्ड आदि प्रत्येक विषयके उनके बनाये हुए इन्दतः प्रौढ और अर्थत: गम्भीर अद्वितीय ग्रन्थोके देखनेसे ही मालुम हो सकता है कि वे वास्तवमें सरस्वतीपत्र प्रज्ञापुंज और कलिकालदास थे । इसके सिवाय उन्होने अपने ज्ञान और कवित्वको बेलगाम नहीं बना दिया था। उन्होंने प्रत्येक विषयके लिखते समय गुरु और आगमकी आम्नायका ध्यान रक्खा है । इस ग्रंथों मी उन्होंने पद पदपर पूर्व विद्वानों और ऋषियोंके वाक्य उद्धृत किये हैं जिससे यह बात स्पष्ट होती है कि उनकी आत्मा आगम