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عادی و
प्रस्तावना।
तरहवा शताब्दिके विद्वानों में महापण्डित आशधरजी अद्वितीय विद्वान होगये है। उनकी कति और कीतिको देखते हुए यह निश्चय होता है कि उस समयमें इनके समान उद्भट और सार्वविषयक विद्वान् दूसरा कोई न था। यद्यपि ये गृहस्थ थे फिर भी इनके धर्मोद्योतन स्थितीकरण अगाधज्ञान और उसके अपूर्व प्रमावको अनेक राजाओंके हृदय में अंकित करने तथा उनके द्वारा महनीयता प्राप्त करने आदि कार्योंको देखकर उन्हे आचा. यकल्प कहने में विरकुल संकोच नहीं होता । महावीर भगवान के इस शासन कालमें दूसरा कोई गृहस्थ जैन समाजमें आजतक भी इनके समान धर्मका प्रचार और इतना साहित्य निर्माण करनेवाला हुआ हो ऐसा हमको स्मरण नहीं होता। इन्होने अपने जीवनकाल में अपने ज्ञानातिशयके द्वारा सैकडौंको सन्मागेमें लगाया था और स्वयं उत्कृष्ट सदाचार का पालन कर अपनी आस्माके समान विन्ध्यवर्मा अर्जुनवर्मा आदि अनेक नरेखोंकी राज नीतिको भी धार्मिकतासे उद्दीपित कर दिया था । विन्ध्यवर्मा के सांधिविग्राहक मंत्री महाकवि विल्हण आशावरजी की विद्वत्तापर कितने मुग्ध थे और उनको अपने भाई के समान समझते थे यह उनके उल्लेखसे ही स्पष्ट होता है। कुछ शिलालेख आदिके वाक्योंसे ऐसा भी अनुमान होता है कि महापंडित आशावरजीके पिता-सल्लक्षणकी भी राज्यमान्यता कुछ कम न थी । उन्हे राजाका पद प्राप्त था । इसी प्रकार आशाधरजीके पुत्र छाइडके ऊपर मी महाराज अर्जुन वर्मा अत्यंत प्रसन्न थे । यह बात इस अनगारधर्मामृतके अंतमें दी हुई प्रशस्ति में ही सष्ट उल्लिखित