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अनगार
य मद्रादिक इनके
था, उन पं. आशादा
हज ही लक्ष्यमें आम
है। इससे ऐसा निश्चय होता है कि आशाधरजीके वंशमें केवल आशधरजीकी ही नहीं कि उनकी भूत भविष्यात की मिलाकर कई पीडियों में राजमान्यता निरवच्छित्ररूपसे चली थी।
तत्तजातिके अग्रणी सेठ महीचंद्र और सेठ हरदेव आदिने इनसे प्रार्थना की है, अषक जैन अजैन विद्वानोंने इनकी भूरि २ प्रशंसा की है, यतिपति मदन कीर्ति सरीखोंने इनको प्रज्ञापुंज पदकी मेट आण की है, विशण सरीखे महाकवि इनकी तुलनासे अपनेको धन्य समझते हैं, बालसरस्वती मदन और वादीन्द्र विशाल कीर्ति आदि बडे २ पदवीधर इनके शिष्य थे, भट्टारक देवभद्र और विनयमद्रादिक इनके कृतज्ञ थे, और सरस्वतीपुत्र यह जिनका सर्वमान्य पद था, उन पं. आशाधरजीकी प्रशस्त समाजमान्यता कितनी अधिक थी यह सहज ही लक्ष्यमें आ सकता है । राजमान्यताके साथ २ ही समाजमान्यता भी प्राप्त करना अत्यंत कठिन है। सोमदेव सूरीने एक जगहपर कहा है कि
प्रजाविलोपो नृपतीच्छ्याचेत्, प्रजेच्छया चाचरिते स्वनाशः ।
नमंत्रिणां वेधविधायिनीवत सुखं सदैवोभयतः समस्ति । अर्थात-राजनीतिके ग्रंथ वाचनेसे ही कोई राजनीतिका कार्य मंत्री आदिके पदको धारणकर नहीं कर सकता । यह कार्य अत्यंत दुधक्य है, क्योंकि वह राजा और प्रजा दोनोंके मध्यमें रहा करता है। यदि वह राजाकी इच्छानुसार कार्य करे तो प्रजाका लोप होता है, और प्रसकी इच्छानुसार करता है तो राजाके द्वाग उसका ही घात हो सकता है । अत एव चक्कीके पाटोंके बीचमें लगी हुई उस कीलीके समान उस व्यक्ति की अवस्था समझनी चाहिये कि जो जरा भारी होनेपर ऊपरसे और जरा भी हलकी होनेपर नीचेसे ठुका करती है। अस्तु । यह बात सिद्ध है कि महापण्डित आशाधरजी केवल ग्रंथोंका प्रवचन करनेवाले सर्वोत्कृष्ट अध्येता और अध्यापक ही न थे लोकदक्ष भी उतने ही ऊंचे दर्जेके थे । राजगुरुके भी गुरु का पद प्राप्त होना साधारण योग्यताका कार्य नहीं है।
महापण्डित आशापुरजी की विद्वचाको अनेक गुणोंकी तरह सदाचार और संयमने भी विभूषित कर रक्खाथा। सदाचारकी रक्षाका उन्हे कितना अधिक धान था यह बात उनके उल्लेख से विदित होती है. उन्होंने स्वयं इस बातको लिखा है कि हम तुर्कराज-यवनसम्राट् गजनीके सहाबुद्दीन गौरीने जब हमारी जन्मभूभिपर आक्रमण कर लिया तर