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________________ बनगार शब्दो जल्पक्रियान्येषामुपहासादि हेलितम् । त्रिवलितं कटिग्रीवाहद्भङ्गा भ्रकुटिर्नवा ॥ १.६ ॥ १९-वन्दना करते समय बीचमें बातचीत करते जाना शब्द नामका दोष है। २०-वन्दना करते हुए दूसरे लोकोंका उद्घन करना, उनको धक्का देना, विप्लव मचाना, दूसरोंकी इसी करना, इत्यादि वन्दनाका बीसवां हेलित नामका दोष है। २१-वन्दना करते समय कटि ग्रीवा और हृदय इन अंगोंमें भंग-बलि पडजाना त्रिवलित नामका दोष है। अथवा ललाटके ऊपर त्रिवली-तीन सरवटोंका पडजाना यह त्रिवलित नामका ही इक्कीसवा दोष है। करामर्शोथ जान्वन्तः क्षेपः शीर्षस्य कुश्चितम् । दृष्टं पश्यन् दिशः स्तौति पश्यन्स्वान्येषु मुष्ठु वा ॥ १० ॥ २२-शिरका अपने हाथसे अमर्श करना, अथवा दोनो जंघाओं-घुटुनोंके बीचमें शिर रखना कुंचित नाकका दोष है। २३-जो दिशाओंकी तरफ देखता हुआ वन्दना करे उसके दृष्ट दोष समझना चाहिये । अथवा जब दूसरे गुरु आदिक या और कोई देख रहे हों उस समय सुतरां बडे उत्साहके साथ स्तुति बन्दना में प्रवृत्ति करना इसको भी दृष्ट दोष ही कहते हैं। अदृष्टं गुरुदृङमार्गत्यागो वाऽप्रतिलेखनम् । विष्टिः संघस्येयमिति धीः संघकरमोचनम् ॥ १० ॥ २४-गुरुकी दृष्टि बचाकर वन्दना करना अदृष्ट नाम का दोष है । अथवा पीछीके द्वारा प्रतिलेखन न करके ही वन्दना करना चौवीसवां अदृष्ट नामका ही दोष है। अध्याय ८२६
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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