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________________ अनगार २०३ उसीको भक्ति कहते हैं । यह भाक्त ही संसारमें जीवके अपायकी रक्षाका उपाय हो सकती है। अत एव उसीको शरण मानकर और मोक्षकेलिये सर्वज्ञ वीतराग देवकी आराध्यता तथा उनके उपादष्ट धर्मकी कारणतामें निःसन्देह होकर मुमुक्षुओंको उक्त दोनो ही शंकाओंसे रहित होना चाहिये जैसा कि अंजन चोर हुआ । शंका अतीचारके बाद कांक्षा नामके अतीचारका स्वरूप बताते हैं। या रागात्मनि भगुरे परवशे सन्तापतष्णारसे, दुःखे दुःखदबंधकारणतया संसारसौख्ये स्पृहा । स्याज्ञानावरणोदयैकजनितभ्रान्तेरिदं दृक्तपो,माहात्म्यादुदियान्ममेत्यतिचरत्यषैव कांक्षा दशम् ।। ७५ ॥ इष्ट वस्तुओंके विषय में जो प्रीतिरूप अनुराग होता है उसको सांसारिक सुख कहते हैं। यह सुख स्वभावसे ही नश्वर और परवश-पुण्यकर्मके उदय के अधीन है। संताप और तृष्णा ये दो उसके रस-अनु. भवमें आनेवाले फल हैं । दुःखके कारणभूत अशुभ कर्मके बंधका यह कारण है, अथवा स्वयं भी दुःखरूप है। क्योंकि उसके साथमें अनेक दुःखोंका मिश्रण रहता है। इस तरहके इस सांसारिक सुखमें उस जीवकी, जिसकी कि बुद्धि प्रधानतया या एक ज्ञानावरण कमके उदयसे भ्रांत होगई है, जो स्पृहा होती है उसको कांक्षा कहते हैं । इस भ्रांत बुद्धिके कारण उक्त सांसारिक सुखमें, जो कि वस्तुतः दुःखरूप है, सुखका आभास होता है अध्याय RAREKHEERERAKEREKKERARMEREKA १- अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्मके उदयसे रहित । क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि हैं उनके मिथ्यात्वके उदयसे होनेवाली भ्रांति नहीं हो सकती, अन्यथा उनके ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहना मडेगा। जैसा कि आगममें भी कहा है, यथा उदये यद्विपर्यस्तं ज्ञानावरणकर्मणः । तदस्थास्तुतया नोक्तं मिथ्याज्ञानं सुदृष्टिषु ॥ २०३
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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