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________________ अनगार २०२ अध्याय भावार्थ- संशयी जीव अपना कल्याण नहीं कर सकता; क्योंकि संशय के कारण ही वह निश्चित समीचीन हितमार्गपर नहीं चल सकता । भय और संशयरूप अथवा इन दोनोंके विषय में उत्पन्न हुई शंकाका निरास करने केलिये प्रयत्न करनेका उपदेश देते हैं:-- भक्तिः परात्मनि परं शरणं नुरस्मिन्, देव: स एव च शिवाय तदुक्त एव । धर्मश्च नान्य इति भाव्यमशङ्कितेन, सन्मार्गनिश्चलरुचेः स्मरताऽञ्जनस्य ॥ ७४ ॥ भय और संशय इन दो बातोंके निमित्तसे शंका हुआ करती है । अत एव उसके दो भेद हैं । अपने लिये किसीको शरण न समझकर भय शंका और कार्यसिद्धि अथवा उसके कारणों में संदेह उपस्थित होने पर संशय-शका उत्पन्न होती है । जो मोक्षकी इच्छा रखनेवाले भव्य हैं उनको सन्मार्ग — मुक्ति प्राप्ति के उपाय निश्चल निष्कम्प - अत्यंत दृढ रुचि - श्रद्धा रखनेवाले अंजन चोरका स्मरण कर इन दोनों ही शंकाओंसे रहित होना चाहिये। क्योंकि इस संसार में जीवकेलिये केवल परमात्माकी भक्ति ही शरण है । एवं जो सज्ञ और वीतराग हैं वे ही देव हैं और वे ही मोक्षकेलिये आराध्य हो सकते हैं, और नहीं। इसी तरह उन सर्वज्ञ देवका उपदिष्ट धर्म ही निर्वृतिका कारण हो सकता, औरका नहीं । भावार्थ - अत्यंत विशुद्ध भावोंसे हृदयमें जो परमात्मा और उसके गुणोंके प्रति पवित्र अनुराग होता है। १ - “ संशयात्मा विनश्यति " । 2946876 2775 क २०२
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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