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________________ बनगार उसके आधारभत उपाध्यायको पाकर-इन दोनोंकी सेवा करके भव्यगण सांसारिक तथा उसकी कारण मलिनताको दूर करदेते हैं-संसारसमुद्रसे तर जाते हैं। जैसा कि कहा भी है: जैनश्रततदाधागै तीर्थ द्वावेव तत्त्वतः । संसारस्तीयते ताभ्यां तत्सेवी तीर्थसेवकः ।। इस तीर्थको सयुक्ति कहनेका अभिप्राय यह है कि वह पूर्वापर अथवा प्रत्यक्षादिक प्रमाणके द्वारा बाधित नहीं है। शंका नामके अतीचारसे क्या अपाय होता है सो बताते हैं: अध्याय सुरुचिः कृतनिश्चयोपि हन्तुं द्विषतः प्रत्ययमाश्रितः स्पृशन्तम् । उभयीं जिनवाचि कोटिमाजौ तुरगं वीर इव प्रतीयते तैः ॥ ७३ ॥ - जिस प्रकार अत्यंत तेजस्वी और जिसने वैरिओंके बध करनेका दृढ निश्चय कर लिया है ऐसा भी वीर पुरुष, यदि युद्धभूमिमें ऐसे घोडेपर चढा हो जो कि कभी पूरव और कभी पश्चिम इस तरह बडे वेगसे भागता फिरता हो तो, वह वैरिऑके द्वारा मारा जाता है । इसी प्रकार जिसने मोहादिक वैरिओंके घात करनेका नि. श्चय कर लिया है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव यदि जिनवचनके विषयमें दोनो ही कोटियों-वस्त्वंशोंका स्पर्श करनेवाले ज्ञान-" ऐसा ही है अथवा अन्यथा है" इस तरहके संशयज्ञानपर आरूढ हो तो वह उन वैरिओंके द्वारा प्रतिहत हो जाता है। या २०१ .घ. २६
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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