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________________ अनगार ૧૮૫ अध्याय ६ भूमिपर खडे हुए और अकेले ही अर्जुनने रथमें बैठे हुए सम्पूर्ण धनुर्धारियोंको इस तरहसे निपातित कर दिया जैसे कि अकेला ही लोभ सम्पूर्ण गुणोंको नष्ट करदिया करता है । एक औचित्य गुण करोड गुणोंकी बराबर है। किंतु वह भी अत्यंत लुब्ध मनुष्यको छोडने योग्य मालूम पडता है, ऐसा उपदेश देते हैं: गुणकोट्यातुलाकोटिं यदेकमपि टीकते ! तदप्यौचित्यमेकान्तलुब्धस्य गरलायते ॥ २५ ॥ दान और प्रिय वचनों के द्वारा दूसरोंको संतोष उत्पन्न करना इसको औचित्य कहते हैं । यदि करोड गुणोंको एक तरफ और ओचित्यको दूसरी तरफ रखकर देखा जाय तो एक औचित्यका ही प्रमाण अधिक मिलेग. किंतु जो नितान्त लोभसे आक्रान्त है उसे वह भी विषके समान जान पडता है। और जगह भी कहा है कि- औवित्यमेकमेकत्र गुणानां राशिरेकतः । विधायते गुणग्राम औचित्यपरिवर्जितः ।। फलतः औचित्यरहित लुब्ध मनुष्य शेष गुणे को भी धारण नहीं कर सकता । आत्मजीवन परजीवन और आरोग्य तथा पांचो इन्द्रिय के उपभोग, इन आठ विषयों की अपेक्षासे लोभके मी आठ भेद माने हैं। इनसे आकुलितचित्त रहनेवाला मनुष्य सदा ओर सम्पूर्ण अकृत्योंको कर डालता है। इस बातको बतात हैं:-- उपभोगेन्द्रियारोग्यप्राणान् स्वस्य परस्य च । गृध्यन् मुग्धः प्रबन्धेन किमकृत्यं करोति न ॥ २६ ॥ 4 MEMEMBER RAS ५८३.
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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