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________________ अनगार २४९ अध्याय ३ मत्यवधिमन:पर्ययबोधानपि वस्तुतत्वनियतत्वात् । उपयुञ्जते यथास्वं मुमुक्षवः स्वार्थसंसिद्धये ॥ ४ ॥ मुमुक्षुओंको केवल श्रुतज्ञानसे ही नहीं किंतु यथाप्राप्त अथवा यथायोग्य मति अवधि और मनःपर्यय ज्ञानसे भी काम लेना चाहिये। आत्मकल्याणकी सिद्धिकेलिये अनन्त सुखकी प्राप्ति अथवा दुःखोंकी आत्यन्तिक निवृत्तिकेलिये इन ज्ञानोंका भी उपयोग करना चाहिये । क्योंकि ये ज्ञान भी वस्तुतत्वमें नियत हैं । वस्तुओंके याथात्म्य - सामान्यविशेषात्मक स्वरूपके ग्रहण करने में मतिज्ञानादिक भी नियत हैं । मतिज्ञान इन्द्रिय और मन दोनोंसे ही उत्पन्न होता है । इसमें जो इंद्रियजन्य मतिज्ञान है वह यद्यपि कतिपय पर्यायविशिष्ट और मूर्त पदार्थ को ही, तथा मनोजन्य मतिज्ञान मूर्त अमूर्त दोनोंको, किंतु वैसे ही - कतिपय पर्यायविशिष्ट ही पदार्थों को विषय करता है; फिर भी वह, ग्रहण, पदार्थ के यथावत् स्वरूपका ही करता है। इसी प्रकार अवधिज्ञान भी कतिपय पर्याययुक्त ही पुद्गल अथवा पुद्गलसम्बद्ध जीवांको जानता है, किंतु यथावत् जानता है । मन:पर्ययज्ञान भी सर्वावधिके अनन्त भागको जानता है, किंतु यथावत् जानता है । अत एव आत्मकल्याणकेलिये इन ज्ञानोंको भी अपने अपने विषय में मुमुक्षुओंको व्यापृत करना चाहिये । यथा - कानों को शास्त्रश्रवणादिकमें, आंखोंको जिनप्रतिमादर्शन और भक्तपान तथा मार्गादिके निरीक्षणमें, मनको गुणदोषादिके विचार स्मरण आदिकमें, अवधिज्ञानको श्रुतके अर्थ में संदेह उपस्थित होजानेपर उसका निर्णय करनेमें अथवा अपनी या पराई आयुके परिमाणादिक निश्चय करनेमें, तथा मनःपर्ययको चिन्तित अर्धचिंतित पदार्थों के जाननेमें लगाना चाहिये । भावार्थ - आत्मकल्याणकेलिये मतिज्ञानादिकसे भी मुमुक्षुओंको यथायोग्य काम लेना चाहिये | मतिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम होजानेपर इन्द्रिय और मनकी सहायतासे पदार्थ के जानने को या उपयुक्त आत्मा जिसके द्वारा पदार्थोंको जानता है उसको मति कहते हैं। इसके मति स्मृति संज्ञा चिंता अभिनिबोध प्रतिभा बुद्धि मेधा प्रज्ञा आदि अ. ध. ३२ २४९
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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