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अनगार
Bassailai
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वर्धिष्णुः सर्वावधिस्तु सावस्थानुगमेतरः ।। देशावधि वर्धमान और हीयमान दोनो तरहका होता है। अत एव उसमें अनवस्थित और हीयमान ये दोनो भेद भी होते हैं। किंतु परमावधि वर्धिष्णु ही होता है । अत एव उसमें ये दो भेद नहीं होते; बाकी चार भेद होते हैं। तथा सर्वावधि अवस्थित अनुगामी इस तरह तीन ही प्रकारका होता है। समन्तभद्र स्वामीने भी अपने शासमें अबधिज्ञानके चिन्ह और भेद इस प्रकार बताये हैं:
अवधीयते इत्युक्तोऽवधिः सीमा सजन्मभूः । पर्याप्तवाभ्रदेवेषु सर्वाकोत्यो जिनेषु च ॥ गुणकारणको मत्यतिर्यस्वजादिचिन्हजः ।
सोवस्थितोनुगामी स्थावर्धमानश्च सेतरः ॥ नियत विषयके जाननेवाले ज्ञान विशेषको अवधि कहते हैं। अत एव इसका दूसरा नाम सीमाज्ञान भी है। क्योंकि अवधि शब्दका अर्थ सीमा होता है। यह ज्ञान दो प्रकारका है--एक भवप्रत्यय दूसरा गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त देव नारक और जिन भगवान्के हुआ करता है, जो समस्त अंगसे उत्पन्न होता है । एवं गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तियचोंके होता है जो कि कमल शंख स्वस्तिक आदि चिन्हयुक्त स्थानोंसे ही उत्पन्न हुआ करता है। और जो अवस्थित अनुगामी तथा वर्धमान एवं इनसे उल्टा अनवस्थित अननुगामी तथा हीयमान इस तरह छह प्रकारका है।
भावार्थ- भवप्रत्यय अवधिज्ञान शरीरके किसी चिन्हयुक्त स्थानविशेषसे नहीं किंतु समस्त अंगसे उत्पन्न होता है। किंतु गुणप्रत्यय अवधिज्ञान चिन्हित स्थानोंसे ही उत्पन्न होता है । अवधिज्ञान जहांसे उत्पन्न होता है वे शंख कमल आदि चिन्ह नाभिके ऊपर हुआ करते हैं। विभंगज्ञानके सरट मर्कट आदि चिन्ह नाभिके नीचे हुआ करते हैं।
अध्याय