SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 710
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगार ६९८ ना देखे हुए स्थानमें शारीरिक मलके छोडदेनेपर, पक्षसे लेकर प्रतिक्रमण क्रिया पर्यन्त व्याख्यान प्रवृत्यन्तादिकोंमें केवल कायोत्सर्ग ही प्रायश्चित किया जाता है। थूकने या पेशाव आदिको करनेपर तो कायोत्सर्गका करना प्रसिद्ध ही है। अनशनादि करनेके स्थानको आगमके अनुसार समझलेना चाहिये । क्रमानुसार छेद पायाश्चत्तका स्वरूप बताते हैं:चिरप्रव्रजितादृप्तशक्तशूरस्य सागसः । दिनमक्षादिना दीक्षाहापनं छेदमादिशेत् ॥ ५४ ॥ जो साधु चिरकालसे दीक्षित होने के सिवाय गवरहित तपस्याओंके करने में समर्थ और शूर है उससे किसी प्रकारका अपराध बनजानेपर उस अपराधकी शुद्धिकेलिये आचार्यद्वारा एक दिन दो दिन पक्ष मास वर्ष दो वर्ष आदि कालप्रमाणसे दीक्षाकालके कम करदिये जानेको छेद कहते हैं। मूलका लक्षण बताते हैं:मूलं पार्श्वस्थसंसक्तस्वच्छन्देष्ववसन्नके । कुशीले च पुनर्दीक्षादानं पर्यायवर्जनात् ॥ ५५ ॥ पहली सम्पूर्ण दीक्षाको खण्डित करके फिरसे नवीन दीक्षा देकर प्रायश्त्तिकी अपेक्षा पर्याय बदलनका मूल नामका प्रायाश्चर कहते हैं। यह प्रायश्चित्त अत्यंत अपराधीको ही दिया जाता है । और ऐसे अपराधी पांच प्रकारके हो सकते हैं-पार्श्वस्थ, संसक्त, स्वच्छन्द, अवसन्न, और कुशील । जो श्रमणोंके पासमें वसतिका अथवा मठ बनाकर रहता है यद्वा उपकरणोंसे अपनी आजीविका करत अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy