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________________ अनगार मावकी अपेक्षासे है। क्योंकि ज्ञानमें समीचीनता सम्यग्दर्शनके निमितसे ही होती है । और इसलिये उसको सम्यग्दर्शनका कार्य माना है। यहां प्रश्न हो सकता है कि जब दोनो साथ ही उत्पन्न होते हैं तब उनमें कार्यकारणभाव किस तरह बन सकता है ? किन्तु समान समयमें उत्पन्न होनेवालोंमें भी कार्यकारण भाव हो सकता है; यह बात प्रदीप और प्रकाशमें देखनेसे भले प्रकार घट सकती है। जैसा कि आगममें भी कहा है कारणकार्यविधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् । इसीलिये आगे चलकर सम्यग्दर्शन आराधनाके उपदेशके अनंतर ज्ञान आराधनाका उपदेश देंगे, जैसा कि आगममें भी कहा है सम्यग्ज्ञानं कार्य सम्यक्त्वं कारणं वदन्ति जिनाः । झानाराधनमिष्टं सम्यक्त्वानन्तरं तस्मात् ॥ अत एव श्वेतांबराचार्योंका यह वचन ठीक नहीं है कि: चतुर्वर्गाप्रणीर्मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञानश्रद्धानचारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः॥ यहांपर यह प्रश्न हो सकता है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान दोनो ही आत्माके अभिन्न भाव हैं अत | एव भिन्न भिन्न दो आराधनाएं नहीं हो सकती-दोनोंका पृथक् पृथक् आराधन नहीं किया जा सकता ? किंतु यह नहीं है। क्योंकि यद्यपि दोनो एक ही आत्माके भाव हैं इसलिये इनमें कथंचित अभेद है। फिर भी दोनोंका लक्षण भिन्न भिन्न है, इसलिये कथंचित् अभेद भी है । अत एव दोनोंका भिन्न भिन्न रूपमें भी आराधन हो सकता है। जैसा कि आगममें भी कहा है: पृथगाराधनमिष्टं दर्शनसहभाविनोपि बोधस्य । लक्षणभेदेन यतो नानात्वं संभवत्यनयोः । सम्यक्त्व सचमुच में प्रभु है, और इसीलिये वह परम आराध्य है। क्योंकि उसीके प्रसादसे सिद्धि सिद्ध हो सकती अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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