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________________ अनगार १८७ । स्थामक्षामतमश्छिदे दिनकृतेवोदेष्यताविष्कृतम् । तत्त्वं हेयमुपेयवत्प्रतियता संवित्तिकान्ताश्रिता सम्यक्त्वप्रभुणा प्रणीतमहिमा धन्यो जगज्जेष्यति ॥ ६४॥ वह पुरुष धन्य है और वही जगत--निश्चयसे अपने आत्मस्वरूप और व्यवहारसे जीवादिक छहो द्रव्योंके समूहरूप लोकको-जीत सकता है, जिसका कि माहात्म्य उस सम्यक्त्वप्रभुके द्वारा प्रवृत्त होता है, जो कि कालादिलाब्धरूप अरुण सूर्यके सारथीकी शाक्तके द्वारा कुश किये गये अंधकारका छेदन करनेकेलिये सूर्यके समान उदयको प्राप्त होनेवाले प्राच्य अथवा तदातन-अपने ( सम्यग्दर्शनके ) उत्पन्न होनेसे पूर्वसमयवर्ती अथवा समसमयवी महान् वाग्बोधके द्वारा प्रगट किये गये हेय और उपादेय तत्त्वको प्रगट करता है तथा सवित्त सम्यग्ज्ञप्ति-समीचीन ज्ञानरूपी कांताको प्राप्त होता है। . भावार्थ-यहांपर बाग्बोधसे अभिप्राय आगमज्ञानका है, अत एव वचनशब्दको उपलक्षण ही समझना चाहिये । और इसके अनुसार हाथ वगैरहके इशारेसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी आगम ही समझना चाहिये तथा उसका भी यहां ग्रहण करना चाहिये | यह आगमज्ञान दो प्रकारका हो सकता है। एक सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेसे पूर्वसमयवी, दूसरा समसमयवर्ती । काग्बोधशब्दके साथ जो गुरुशब्द है उसके भी दो अभिप्राय हैं। एक तो यह कि वाग्बोध-आगमज्ञान गुरु-महान् है क्योंकि वह परोपदेशकी अपेक्षा नहीं रखता। यह बात निसर्गकी अपेक्षासे समझनी चाहिये । दूसरा यह कि वह गुरु-धर्मोपदेशकके वचनोंसे उत्पन्न होता है। यह अर्थ अधिगमकी अपेक्षासे समझना चाहिये । प्राच्य और तदातन शब्दके द्वारा सम्यग्दर्शनकी सामग्री बताई है। क्योंकि बहिरंग कारणकी अपेशासे सम्यग्दर्शन निसर्गज और अधिगमज इस तरह दो प्रकारका है। यह बात पहले बता चुके हैं । जिस प्रकार उदयको प्राप्त होनेवाला सूर्य सारथीकी शक्तिसे अंधकारको छिन्न करदेता है उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान सम्यक्त्वोत्पत्तिके योग्य काल क्षेत्र द्रव्य भाव रूप सारथिकी शक्तिसे निर्बल हुए मिथ्यात्वरूपी तिमिरको दूर कर देता है। और सम्यक्त्वके साथ ही उदित होता है। साथमें उदित होना समीचीन अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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