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________________ अनगार ३३८ साधुओंको योग्य कार्य योग्य काल और अपने विषयमें मित और भक्तादि कथाओंसे रहित सत्य वचन बोलना चाहिये और ऐसे ही वचन उन्हे सुनने भी चाहिये। . इस सत्य महाव्रतका व्याख्यान पूरा करके क्रमप्राप्त अचौर्य महाव्रतका ग्यारह पद्योंमें व्याख्यान करनेकी इच्छासे पहले चोरीके दोष दिखाते हुए उससे त्याग करनेका उपदेश देते हैं: दौर्गत्याद्यग्रदुःखाग्रकारणं परदारणम् । हेयं स्तेयं त्रिधा राद्धुमहिंसामिष्टदेवताम् ॥४८॥ इच्छित पदार्थोको देनेवाली तथा अभिमत देवताके समान अहिंसाका आराधन करनेकेलिये मुमुक्षुओंको उस स्तेय-चौरकर्मका सर्वथा त्याग करदेना चाहिये जो कि दुर्गति-नरकादिकोंके उग्र-महान् दुःखका प्रधान कारण, और दूसरोंका अच्छी तरह विनाश करनेवाला है। क्योंकि चोरीमें प्रवृत्ति करनेवालेको परलो. कमें नरकादिककी जो प्राप्ति होती है वह और उसके सिवाय इस लोकमें दारिद्रथ वध बंधन आदि शारीरिक तथा मानसिक जो संतापरूप फल प्राप्त होते हैं वे सब स्पष्ट हैं । यथाः "वधबन्धयातनाश्च छायाघातं च परिभवं शोकम् । स्वयमपि लभते चौरो मरणं सर्वस्वहरणं च ॥" चोरी करनेवाला मनुष्य वधबंधनकी यातनाओं अथवा और भी अनेक प्रकारकी यातनाओं-दुःखोंको, तथा छायाघात-अपनी या पराई छायाके देखनेसे ही आहत हो जाना , परिभव-तिरस्कार, और शोकको स्वयं ही प्राप्त होता है। किंतु इनके सिवाय मरण और सर्वस्वहरण जैसे फल भी उसको प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार चोरीके निमित्तसे जो दसरोंका घात होता है सो भी स्पष्ट है। क्योंकि: अध्याय
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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