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________________ औदायिक औपशमिक क्षायिक और क्षायोपशमिक ये चार प्रकारके तथा जीवन मरणादिक सभी वैभाविक भाव मुझसे मित्र हैं, क्योंकि वे परनिमित्तक हैं, कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले हैं अत एव वे मेरे वास्तविक भाव नहीं हैं । शुद्ध निश्चय नयसे आत्माका वास्तविक स्वरूप पारणामिक भाव हैं। अत एव एक चेतनाके चमत्कार-अत्यंत अद्भुत स्वरूपको धारण करनेवाला में इन बैंभाविक भावोंमें रागद्वेष को किस तरह प्राप्त हो सकता हूं, कभी नहीं हो सकता। यहाँसे नौ श्लोकोंमें भावसामायिकका ही विस्तारके साथ वर्णन करते हैं: जीविते मरणे लाभेऽलाभे योगे विपर्यये । बन्धावरौ सुखे दुःखे साम्यमेवाभ्युपैम्यहम् ॥ २७ ॥ जीवन मरण लाभ और हानि संयोग और वियोग तथा मित्र और शत्रु एवं सुख और दुःख इन सब विषयोंमें मैं रागद्वेषको छोडकर समता भाव धारण करता हूं। क्योंकि जो आत्मस्वरूपसे अपरिचित प्राणी हैं वेही जीवनकी आशा और मरणका भय किया करते हैं। उन्हे जीवन-वर्तमान आयुष्यका धारण इष्ट और मरणआयुकर्मका पूर्ण हो जाना अनिष्ट मालुम होता है। किंतु चित्स्वरूपके अनुभवकी तरफ प्रवृत्त हुआ मैं इनमें रागद्वेष किस तरह कर सकता हूं। मुझे न तो जीवनमें राग है और न मरणमें द्वेष । इसी प्रकार न लाममें प्रीति है न अलाममें अप्रीति । न संयोग इष्ट है और न वियोग अनिष्ट । उपकारीसे प्रेम नहीं और अपकारीसे अमर्ष नहीं। किंबहुना सुखकी आशा और दुःखका भय भी छोडकर सभी इष्ट अनिष्ट विषयों में अब साम्य भाव धारण करता हूं। जीवनकी आशा और मरणके भयके विषय में वर्णन करते हैं।-- कायकारान्दुकायाहं स्पृहयामि किमायुषे । तहुःखक्षणविश्रामहेतोर्मृत्योर्बिभेमि किम् ॥ २८॥ आयु कर्म शरीररूपी जेलखानेमें जीवकी यथेष्ट गतिका प्रतिबंध करनेवाले और उसको निरंतर दुःखोंके
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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