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________________ अनगार ५६९ अध्याय अपना अपराध करनेवालोंका शीघ्र ही प्रतीकार करने में समर्थ रहते हुए भी जो पुरुष अपने उन अपराधियों के प्रति उत्तम क्षमा धारण करता है उसको क्षमारूपी अमृतका समीचीनतया सेवन करनेवाले साधुजन पापों को नष्ट करदेनेवाला समझते हैं। antaraarकी विधि बताते हैं । प्राग्वस्मिन्वा विराध्यन्निममहमबुधः किल्बिषं यद्वबन्ध, कुरं तत्पारतन्त्र्याद् ध्रुवमयमधुना मां शपन्काममान्नन् । निम्नन्वा केन वार्यः प्रशमपरिणतस्याथवावश्यभोग्यं, भोक्तुं मेद्यैव योग्यं तदिति वितनुतां सर्वथार्यस्तितिक्षाम् ॥ ६ ॥ मुझ अल्पज्ञने पूर्वजन्ममें अथवा इसी जन्ममें जो इस जीवकी विराधना की थी उससे दुःखद एवं उदग्र पापकर्मका बन्ध किया जिसकी कि परतन्त्रताके कारण ही आज मुझको यह गाली दे रहा है अथवा चाबुकसे पीट रहा है यद्वा मेरे प्राणोंका अपहरण कर रहा है। भला जिसकी कि मैंने विराधना की वह यदि उस विराधनाजनित पापकर्मके उदयसे मेरे साथ भी वैसा ही व्यवहार करे तो उसको वैसा करनेसे कौन रोक सकता है। क्योंकि संचित मका फल अवश्य ही भोगना पडता है। जब कि वह अवश्य ही भोगना पडता है तब मुझको प्रशमरूप परिणत हार आज ही उनका भोगलेना योग्य है। इस प्रकारसे साधुओं को अपनी क्षमाभावना विस्तृत करनी चाहिये । भावार्थ - किसी विराधक के उपस्थित होनेपर साधुओंको ऐसा विचार करना चाहिये कि मेरे पूर्वसंचित पापकर्मके उदयसे ही यह मेरे प्रति ऐसा व्यवहार कर रहा है। अत एव इस पापफलको मध्यस्थ भावोंसे जहांतक हो, शीघ्र ही भोगलेना उचित है; जिससे कि इन कमाँकी निर्जरा हो जाय । किसीके इस तरहसे गाली आदि दिये जानेपर भी कि जिसके सुनते ही क्रोध उत्पन्न हो जाय, जो साधु ५६९
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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