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________________ अनगार नाश करदेते हैं। किंतु जो इन कषाय शत्रुओंका निःशेष नाश करनेमें शूर हैं उनको अनादिकालसे परतन्त्रताके दुःखको पुनःपुनः भुगानेवाले एवं बलवान् भी ये कर्मशत्रुओंके संघ उत्पीडित नहीं कर सकते, अत एव साधुओंको इन क्रोधादिक शत्रुओंके जीतनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। क्रोध कषायका फल अनर्थ ही है इस बातको दिखाकर उसके जीतनेका उपाय बताते हैं: कोपः कोप्यग्निरन्तर्बहिरपि बहुधा निर्दहन् देहभाजः, कोपः कोप्यन्धकारः सह दृशमुभयीं धीमतामप्युपनन् । कोपः कोपि ग्रहोऽस्तत्रपमुपजनयन् जन्मजन्माभ्यपायां, स्तत्कोपं लोप्तुमाप्तश्रुतिरसलहरी सेव्यतां क्षान्तिदेवी ॥ ४॥ क्रोध कषायको एक अपूर्व अग्निके समान समझना चाहिये जो कि संसारी प्राणियोंके बाह्य शरीर नेत्र आदिकोंको तथा अन्तस्तत्त्व-आध्यात्मिक भावोंका नाना प्रकारसे ऐसा भस्मसात् किया करता है कि जिसका कोई प्रतीकार नहीं हो सकता । यद्वा उसको एक अपूर्व अन्धकारके तुल्य समझना चाहिये जो कि मुखौकी तो बात ही क्या, विद्वानोंकी भी अन्तरङ्ग और बाह्य दोनो ही प्रकारकी दृष्टियोंको अन्धा बना देता है । अथवा उसको एक अपूर्व ग्रहके समान भी कहा जा सकता है जो कि निर्लजताके साथ साथ नाना प्रकारके क्लेशोंको इस जन्म और जन्मान्तरों में भी उत्पन्न किया करता है । फलतः यह बात सिद्ध है कि क्रोधका फल अनर्थके सिवाय और कुछ भी नहीं है। अत एव मुमुक्षुओंको इस कोपका लोप करने के लिये उस क्षमादेवताका आराधन करना चाहिये, जो कि आप्तोक्त आगमके अर्थज्ञानका उल्हास करनेमें कारण है। उत्तमक्षमाके माहात्म्यकी प्रशंसा करते हैं-- यः क्षाम्यति क्षमोप्याशु प्रतिकर्तुं कृतागसः । कृतागसं तमिच्छन्ति क्षान्तिपीयूषसंजुषः॥५॥
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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