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KE TRENA
अनगार
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मुक्षु तपस्वीको, दूसरे पक्षमें यात्रीको, यथेष्ट स्थानपर या पदपर पहुंचा सकता है ? कभी नहीं । क्योंकि कर्णधार के समान यह सम्यग्ज्ञान ही निरंतर अप्रमत्त-सावधान रहता और अपने हिताहितके विवेकसे प्रवृत्ति निवृत्ति कराता है । यह हित है ऐसा जता कर हितमें प्रवृत्ति करानेवाला और, यह अहित है ऐसा प्रकाशित कर उस अहितसे निवृत्ति करानेवाला यह सम्यग्ज्ञान ही है।
भावार्थ-सम्यग्ज्ञानके द्वारा सुप्रयुक्त ही तप अभीष्ट स्थान या अर्थको सिद्ध कर सकता है; अन्यथा नहीं ।
सम्यग्दर्शनकी तरह ज्ञानकी भी उद्योतादिक पांच आराधनाए हैं। उनमेंसे आदिकी उद्योतन उद्यवन और निर्वहण इन तीन आराधनाओंका स्वरूप बताते हैं:--
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ज्ञानावृत्त्युदयाभिमात्युपहितैः संदेहमोहभ्रमैः, स्वार्थभ्रंशपरैर्वियोज्य परया प्रीत्या श्रुतश्रीप्रियाम् । प्राप्य स्वात्मनि यो लयं समयमप्यास्ते विकल्पातिगः,
सद्यः सोस्तमलोच्चयश्चिरतपोमात्रश्रमैः काम्यते ॥ १७ ॥ जिस प्रकार कोई राजा अपनी प्रियाको शत्रुओंके भ्रष्ट करनेवाले साधनोंसे बचाकर और परम आनन्दके साथ आलिंगनको प्राप्त कराकर कुछ कालकेलिये अनिर्वचनीय आनन्दको प्राप्त हो जाता है तो उसकी संसार लोग प्रशंसा करते हैं । उसी प्रकार उद्योत आदि रूपसे ज्ञानका आराधन करनेवाला जो मुमुक्षु साधु, आगममें बताई हुई " एकों मे सासदो आदा" एक मेरा आत्मा ही शास्वत है, इस तरहकी श्रुतज्ञानकी भाव.
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अध्याय
१ अभिमाति-शत्रु ।
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