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________________ अनगार २६५ अध्याय ३ यद्यपि ये दोनो सहभावी हैं--युगपत् उत्पन्न होनेवाले हैं फिर भी दीपक और प्रकाशकी तरहसे उनमें कार्यकारण भाव है। जिस प्रकार प्रदीप और प्रकाश साथ ही उत्पन्न होते हैं। फिर भी प्रदीपका प्रकाश कार्य होता है। उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और ज्ञानकी समीचीनता अथवा ज्ञान इनको परस्परमें क्रेमसे कारण और कार्य समझना चाहिये । जैसा कि आगममें भी कहा है: कारणकार्य विधानं समकालं जायमानयोरपि हि । दीपप्रकाशयोरिव सम्यक्त्वज्ञानयोः सुघटम् ॥ सम्यक्त्व और ज्ञान यद्यपि एक ही कालमें उत्पन्न होनेवाले हैं; फिर भी उनमें दीपक और प्रकाशकी तरहसे कारणता और कार्यता अच्छी तरह घटती है । I ज्ञान के विना तप भी समीहित पदार्थोंको सिद्ध नहीं करसकता; यह दिखाते हैं: - विभावमरुता विपद्वति चरद् भवाब्धौ सुरु, प्रभुं नयति किं तपः प्रवहणं पदं प्रेप्सितम् । हिताहितविवेचनादवहितः प्रबोधोन्वहं, प्रवृत्तिविनिवृत्तिकृद्यदि न कर्णधारायते ॥ १६ ॥ तप एक बडे भारी जहाजके समान है; क्योंकि वह अथाह संसारसमुद्रसे पार पहुंचाने में कारण है । फिर भी रागद्वेषात्मक विभावभावोंके आवेशरूपी वायुके द्वारा अनेक 'आपत्तियोंसे घिरे हुए संसाररूपी समुद्रमें जब अत्यंत कुशको देते हुए इधर उधर चकर खाने लगता है-डगमगाने लगता है तब तरण कलामें अत्यंत कुशल नाविक के समान यदि सम्यग्ज्ञान पास न हो तो क्या यह कहा जा सकता है कि, वह अपने स्वामी-सु अ. ध. ३४ धर्म २६५
SR No.600388
Book TitleAnagar Dharmamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar Pt Khoobchand Pt
PublisherNatharang Gandhi
Publication Year
Total Pages950
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size29 MB
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